My Blog List

Monday, 14 December 2015

खुदा मेरा है और है सही तरीका इबादत का मेरा

लज्जते शौक अगर हो तो एक एहसास पैदा कर
तहे  जिगर में कोई नयी बात पैदा कर

नादानी, बेरुखापन और जाहिलियत की क्या बात करूँ
समझना है तो लहू में एक अलग से जान पैदा कर

झगरते हैं मुस्लमान भी एक बड़ी अजीब सी बात पे
छोर झगका फिरको का अपने अंदर ईमान  पैदा कर

खुदा मेरा है और है सही तरीका इबादत का मेरा
कुछ करम कर और इस्पे कोई नयी बात न पैदा कर 

डूबते कौम को बचाने की बात करने से पहले
अपने आपमें  एक अलग सी  पहचान पैदा कर ।

Sunday, 13 December 2015

बात बढ़ती रही और दिल फफकता रहा।

मैं था बेताब और जेहन भी  कहीं उलझा रहा
बात बढ़ती  रही और दिल फफकता  रहा।
 
लोग कहते हैं ये किसी के चुराता हूँ मैं अशआर
क्या खबर उन्हें दिल टूट कर हर रात बिखरता रहा।

कहीं दूर जब सितारों ने की सरगोशी
मैं ख़्वाबों में अपने नग्मे बुनता रहा।

मेरे इकबाल पे कोई तकरार न कर ऐ दोस्त ऐ जिगर
जब लिखूं दिल की बात बस ये जुमला बा जुमला बनता रहा।

खून ऐ जिगर से लिखता हूँ मैं अपने दिल की बात
गर कोई शक करे तो बस खून मेरे दिल बहता रहा।

तू वहां बेवजह और बेकार ही बैठा था।

क्या हुवा जो मैं दूर  ही बैठा था
वहां अदालत में कोई मजबूर ही बैठा था।

लगी थी आग जब इस अंजुमन को
वहां निशाने पे कोई और ही बैठा था।

हिस्से का मिलेगा इसलिए चुप रहा
क्या पता था की वहां मैं बेसूद ही बैठा था

अब कोई फायदा नही सरफ़राज़ रोने से
तू वहां बेवजह और बेकार ही बैठा था।

Friday, 11 December 2015

वक्त के साये में हमेशा सुलझ जाते हैं लोग


बेवजह उलझ जाते हैं लोग
बात ही बात में बिखर जाते हैं लोग।

आपस के मुहब्बत व जंग से मुझे गुरेज नही
पर जख्म जो दिल पे लगे तो मर जाते हैं लोग।

गहराई कुछ यूँ है ज़िन्दगी की
वक्त के साये में हमेशा सुलझ जाते हैं लोग


منصف سے نہ انصاف سے نہ ہی حکمران سے

منصف سے نہ انصاف سے نہ ہی حکمران سے
در  لگتا ہے تو  بس اس دور کے میجبان سے

ظلم   سے نہ ظالم  سے  اور نہ ہی جللاد سے
در  لگتا ہے تو بس ایک جھوٹے رہنمان سے

पता चला अदालतें भी उधार लेती हैं

ज़िन्दगियों को मौतें बिगार देती हैं
वफ़ा को शोहरत उजार  देती हैं

पट्टियां आँखों पे बांधे ये अदालत की मूर्तियां
जैसे जुल्म मुंसिफ की आँखें निकाल लेती है

हमतो ढूंढते रहे अदालत  में इन्साफ
पता चला अदालतें  भी उधार लेती हैं

आँखों पे पट्टियाँ बाँध  के इन्साफ
कानों में कुछ कपड़े भी दाल लेती है

कोई बरसो सड़ता रहा इंसाफ के लिए
किसी को इन्साफ खुद ही पुकार लेती है









Wednesday, 9 December 2015

बिना थके न रुका करो।


बिना रुके ही चला करो
बिना थके न रुका करो।

कल कोई  पल न मिले  शायद
आज ही आज में जिया करो।

रहे न बाकि कोई उमंग
ऐसे तुमभी रहा करो।

मज़बूरी का नाम न  लेना
बस अपना मौका चुना करो।

Saturday, 14 November 2015

Simplicity not define by wearing the sandals and hanging shirt

How simplicity defined by wearing the sandals and hanging shirt. It may not be the simplicity but a personal choice. I respect personal choice of individuals and leader as well but not at all the places.
I would expect these people to invest in a pair of shoes instead of sandals and be able to tuck your shirt into belted trousers on required occasions.

Children’s Day

Very agonizing era for children, technology has taken off their traditional childhood stuff and gifted them the article of laziness and destruction specially the empire of internet which is scooping them day by day. I am not against the use of internet but guardian and parents shall have their spy eye on them, but the problem starts when guardian don’t managing time or not able to understand the reality (merit and demerit) of cyber world.
And intoxication is another prime is...sue along with the technology, most of the student getting these habit from schools only. I thought there should be brain refreshment & time management session for the guardians and parents.
So this children’s day we will take an oath to not blame the children but will manage ourselves first to be Vigilant and humble but not the lenient one.
Happy Children’s Day to all you.

Thursday, 12 November 2015

इस दिवाली प्रेम का एक दिया जलाएं हम

आओ एक दिया आपसी प्रेम का जलाएं हम
मिल जुल के अब ख़ुशी  के गीत गायें हम

दिलों पे जो सियासत की गुबार छायी है
निकाल  उसे कहीं दूर फेंक आएं हम

हवा भी बदबूदार है फिजा भी कुछ अजीब है
प्यार व सकूँ का कोई एक हवा चलायें हम

वो कुर्सियों के खेल में कहीं कोई लड़ा गया
आज इस दीपावली पे सबको घर बुलाएं हम

मिठाईयों में  मिठास हो एक दूसरे का साथ हो
इस दिवाली प्रेम का एक दिया जलाएं हम

यही पले यहीं बढे फिर हुवे हैं क्यों  जुदा
चलो अपना पुराना हिंदुस्तान वापस लाएं हम

Wednesday, 11 November 2015

हुजूम देखा और मुफ़लिस का जलता मकान देखा

हुजूम देखा और मुफ़लिस का जलता मकान देखा
क्या वो भी एक दिवाली थी जो उस रात मैंने वहां देखा। 

शायद के हम भी बिछर  जाएं अपने उसूल से
अब तू  याद ना दिला के मैंने वहां क्या देखा।

चराग के साथ जला दे अपने गंदे ख्यालात।

इस दिवाली पे हम क्यों ना करें कुछ ऐसी बात
चराग के साथ जला दे अपने गंदे ख्यालात।
वो दिन और था जब सिर्फ चराग जला करते थे
अब तो यहाँ इंसानियत जलती है हर रात ।
पठाखों की आवाज़ कुछ जानी पहचानी सी लगती है
दिल के कैदखाने से निकल आते हैं हजारो सवालात ।

देखें जमाने में कई खुद गर्ज़ ऐसे ऐ सरफ़राज़
कुर्सी की खातिर भरका देते हैं लोगो के जज्बात ।

Tuesday, 10 November 2015

अब कोई रंग अनजान नही लगता

शाम का वक्त था रेल गाड़ी बस हाजीपुर स्टेशन से चलने को तैयार थी। मैं चुप चाप बैठा एक अफ़साने  की किताब पढ़ रहा था। तभी एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति हड़बड़ाते हुवे रेल में चढ़ा और आकर मुझसे बैठने के लिए जगह मांगने लगा चूंकि रेल उसी स्टेशन से चलती थी इसलिए अभी इतनी गुंजाईश तो थी ही के एक आदमी को बिठा लिया  जाये। आदमी देखने में बिलकुल सीधा साधा और शांत सवभाव का लग रहा था। मैं  उन्हें जगह दे कर किताब के अफ़साने में खो गया मगर वो शख्श बार बार मेरी किताब  देख कर ये अंदाजा लगाने की कोशिश कर रहा है था की आखिर मैं पढ़ क्या रहा था। मुझे लगा शायद उस व्यक्ति का सफर न कट रहा हो और वो इसलिए बात करना चाह  रहा है। अतः मैंने भी उससे बात करनी शुरू की उसने अपना नाम राजू बताया और फिर इधर उधर की बात हुई मगर यह जानकर बहुत हैरानी हुई के एक आदमी जिसकी उम्र लग भाग ३२ वर्ष हो उसको १७ साल का कार्य अनुभव था। पूछने पर उसने बताया की वो करीब पंद्रह साल की उम्र से ही काम करता है। शकुशल कारीगर है और उसने नोवी  कक्षा तक पढाई की हुई है अच्छा लिखना पढ़ना जनता है। नोवी के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी क्यंकि तीन छोटे भाईयों का बचपन सवारने की जिम्मेदारी उसी के कंधे पे थी पिता जी  का स्वर्गवास तभी हो गया था जब राजू पांचवी कक्षा में पढता था और तब वो गाओं के पास वाले प्राइवेट स्कूल में ही पढता था पिताजी  के गुजरने के बाद घर की  आमदनी का जरिया बंद होगया तभी राजू ने गाओं से सात  किलोमीटर दूर एक  सरकारी स्कूल में दाखिला ले लिया मगर घर की बुरी हालत की वजह से नोवी तक ही पढ़ स्का बाद के छोटे भाइयों की जिम्मेदारी भी उसके ऊपर थी। माँ  गाओं के एक किसान के खेत में काम करके कब तक घर चलती और अतः राजू को पढाई छोर शहर जाना  पड़ा था और तभी से वो काम करता ही उसने बताया की  वो दिल्ली से आरहा है। वहीँ  एक छोटे से  कारखाने में काम करता है । उसने बताया की वो घर जाकर इसलिए खुश हो जाता है क्यंकि उसने जो कुछ अपने ज़िन्दगी में नही किया था वो सब कुछ वो अपने छोटे भाई को करा सकता था।  राजू सात किलोमीटर दूर स्कूल पैदल जाता था जबकि उसके भाई साइकिल का प्रयोग करते हैं। जहाँ उसे कहीं गाओं के लोगों का ताना सुनने को मिलता था मगर आज उसका भाई बड़े इज़्ज़त से पढाई करते है।
तीन साल पहले राजू की शादी हुई थी राजू बहुत खुश था। बहुत धूम धाम और  अरमानो के साथ उसने नयी दुनिया में कदम रख्खा था सभी लोग खुश थे। राजू को लगने लगा था की शायद जो उससे ज़िन्दगी के  पहले हिस्से में छूट गया था वो इसको इस हिस्से में मिल जायेगा, सुख, चैन और एक इज़्ज़त की ज़िन्दगी ।
और राजू का खुश होना भी वाजिब था हो भी क्यों न, शादी इंसान के जिंदगी का  वो हिस्सा है जिसका  सही सही वर्णन करने के लिए अभी तक कोई शब्द ही न बना हो इसको बयान कर पाने की  ताकत किसी शादी शुदा इंसान में तो नही होती और गैर शादी शुदा की इस्पे कुछ सुनी नही जाती।
राजू को अपने ज़िन्दगी में हर कमी को पूरी करने की ख्वाहिश जाग उठी थी उसने सोचा था की मैं अब एक सामजिक इंसान बन जाऊंगा जैसा की लोग हमारे समाज में कहते हैं की शादी के बाद इंसान एक सामाजिक इंसान बन जाता है जिम्मेदारियों का एहसास और वक्त की पाबन्दी इंसान में बढ़ जाती है। मगर ऐसा तब होता है जब सब कुछ अच्छा चल रहा हो और ऐसा बहोत काम ही होता है की सब कुछ अच्छा चले।
राजू की शादी में थोड़ी मोड़ी न इत्तेफकी जरूर हुई थी मगर राजू एक सीधा और शांत सवभाव का होने के कारन इन सब बातों को भूल कर अपने सजोये हुवे अरमानो को एक उड़ान देना चाहता था। अतः उसने साडी बाते भूल कर अपने बीवी को गले लगाया उसे इतना प्यार देने की कोशिश की जितना वो दे सकता था उसने हर संभव ये प्रयास किया के वह अपनी पत्नी का एक वफादार पति बने।
मगर कहते हैं ना की इंसान के बस का इस दुनिया में कुछ भी नही है इसके आगे की कहानी राजू ने रोते हुवे सुनाया की उसकी शादी एक साल भी नही चली और उसकी पत्नी मयिेके जाने के बाद अब तक  नही लौटी है। वैसे तो उसने अपने पत्नी की कोई बुराई नही की मगर उसने सही वजह भी  नही बताय की आखिर हुवा क्या था जो पत्नी दोबारा वापिस नही आयी।
फिर कहने लगा की मेरे जीवन का क्या है, पिछले साल माता श्री का भी स्वर्गवास हो गया है दोनों छोटे भाई को भी नौकरी लग गयी है।  एक भाई बचा है जो बारह्वी में पढता है। अब सबकुछ ठीक है बस इतनी सी आयु में ही दुनिया के इतना रंग देखा हूँ की अब कोई रंग अनजान नही लगता।
इसके बाद मेरा स्टेशन आ गया और मैं राजू को अलविदा कह कर उतर गया। थोड़े दूर तक तो उसकी कहानी मेरे दिमाग में गूंजती रही फिर मैं उनसब  बातो को भूल गया। मगर आज १२ साल बाद अचानक से उसकी कहानी मुझे याद आई और मैंने लिखना शुरू करदिया।


Monday, 9 November 2015

मस्तिष्क

आज तक मुझे ये समझ में नही आया की दो इंसानो के मस्तिष्क में  इतनी विभिन्ता कैसे होती है। जबकि सारे मस्तिष का उत्पादन एक ही जगह होता है। क्या गज़ब की गुणवक्ता है उपरवाले की उत्पादन में  जो विशाल उत्पादन करता है और सब एक दूसरे बिलकुल  अलग।
क्या कभी आपने कल्पना की है बिना दिमाग वाले समाज की नही की होगी क्यंकि  हम इंसानो को लगता है की हमारे पास दिमाग है इसी लिए तो हम इंसान है मगर ऐसा क्या दिमाग नही रहने से किसी चीज़ की गुणवक्ता कम हो जाती है क्या नही न। बस ये फज़ूल का हमारा बैठाया हुवा भरम है की बिना दिमाग के इंसान इंसान नही रह जायेगा।
उदहारण के तौर पे आप पेड़ पोधे को देखें  क्या पेड़ पोधे अपनी ज़िन्दगी नही जीते?  बल्कि हम इंसानो से अच्छी ज़िन्दगी जीते हैं , उनमे कहाँ कभी युद्ध देखा है बड़ा अजीब सा अनुसासन होता है उनमें अगर हिले तो सब एक साथ और रुके तो सब एक साथ जब उनमे से कोई कमजोर होजाये या बहरी ताकतों से लाचार हो कर गिरने लगे तो वो एक दूसरे को  गिरने से बचाते भी हैं मगर हम इंसान ?इसके बारे कुछ कहना उचित नही है ये तो आप रोज़ ही देखते हैं। सो मेरा मानना है की इंसान बगैर मस्तिष के ज्यादा अच्छा समाज का गठन कर सकता था जैसा की वो मस्तिष के साथ नही कर पाता है।  

वक्त के सितम पे तू पर्दा भी डाल ले।

कश्मकश ज़िन्दगी की तू युहीं संभाल ले
वक्त  के  सितम  पे  तू  पर्दा भी डाल ले।

वापस जो की थी कभी अल्फ़ाज़ों भरी किताब
वक्त  आ  गया  है अब  उसे बहार निकाल ले।

हवा जैसे रेत से खिलाती है कोई गुलाब
मुमकिन है तू भी कोई सिक्के उछाल ले।

इंसान बस एक भर्मित प्राणी है

इंसान बस एक भर्मित प्राणी है। हम भरम में रहते हैं भरम में जीते है और दूसरे को भी भर्मित करते रहते है। जीवन कुछ नही बस भरम है। इसका प्रमाण निचे दिए उदहारण से समझने का प्रयास कीजिये।
तारा या सितारा जो चाहो कह लो , मिसाल के तोर पे अगर तारा को ले तो इसी से आप अपने दिमागी फतूर का अंदाज़ा लगा सकते हैं। तारा आसमान में एक नियमित रूप से दिखने वाली चीज़ है मगर आप गौर करे तो इसको देखने  वाले करोड़ो  लोग इसे अपने नज़रिये से देखते है जैसे खगोलशास्त्री  इसे अलग देखता है ज्योत्षी वैज्ञानिक इसे अलग व अपने नज़रिये से देखते हैं वहीँ एक आशिक़ इसे अपने नज़रिये से देखता है और इसके अपने अपने अर्थ निकलता है मगर आप थोड़ा ध्यान केंद्रित करो तो पता लगेगा की उस तारा में ऐसा कुछ है ही नही जो लोग उसमें देखना चाहतें हैं और उसका अर्थ निकलते है।
हैं न हम भरम में?

Sunday, 8 November 2015

दूल्हे नितीश कुमार



बिहार चुनाओ परिणाम आज का खास मुद्दा है जिसपे हर जगह बात की जा रही है और हो भी क्यों ना।
महा गठबंधन जीत गया इसकी चर्चा करना चाहूंगा न की भारतीय जनता पार्टी की हार का। नितीश कुमार ने दूसरी पत्नी से ब्याह रचा लिया है इसकी मिठाई की मिठास का एहसास करने से पहले हमें आगे की चुनौती का आंकलन करना जरुरी है। दूल्हा नितीश कुमार अपनी दूसरी पत्नी के साथ कितने ताल मेल के साथ रह पाएंगे ये कहना बहोत मुश्किल हो रहा है और तब ज्यादा मुश्किल लग रहा है जब  दूल्हा पहले से थोड़ा कमजोर हो गया हो। बहर हाल एक फ़ूहड़ बीवी से शादी कर नितीश कुमार कैसे व्यवस्थित करेंगे अपने आपको ये देखने योग्ये होगा।
नितीश कुमार एक शांत स्वाभाव व्यक्तित्व के मालिक है और उनके सहयोगी उनके उलटे रहे हैं मगर तब भी जैसे तैसे उन्होंने १० साल निकाला है और सिर्फ मैनेज ही नही बल्कि उच्ये गुणवक्ता की विकास ही की है। उनके सामने कुछ अहम मुद्दे हैं जिनमे कुछ को तो सिर्फ बरक़रार रखने की जरुरत है और कुछ चीज़ों में तो बहोत ज्यादा बदलाओ की जरुरत है। कानून व्यवस्था, शिक्षा , इंफ्रास्ट्रक्चर , औद्योगीकरण, इत्यादि है।
जिसमे कानून व्यवस्था को सिर्फ बरक़रार रखने की जरुरत है। जो कौशल नितीश कुमार जी  ने कानून व्यवस्था बनाने में दिखायी है इसका प्रमाण इसी बात से लग जाता है की बिहार का चुनाओ शांति पूर्ण हो गया और उनके राज्ये में चुनाओ के दौरान  या उससे पहले कोई दंगा नही हुवा जो की आज कल आम बात है और अगर यकीन न हो रहा हो तो उत्तरप्रदेश को देख लें असलियत में ये चुनाव उत्तरप्रदेश के शाशक के लिए एक सीख है ये मैं न्यूज़ चैनल देख कर नही कह रहा मगर जमीनी हकीकत है की जिला और थाना लेवल तक को एक एक कर चुस्त दुरुस्त रख्खा गया है।  पिछले दस साल चाहे वो दुर्गा पूजा हो या मुहर्रम सबमें प्रसासन बहुत चुस्त दरुस्त रहा है । दूसरा सबसे अहम मुद्दा है शिक्षा जिसमें कहीं न कहीं नितीश कुमसर फ़ैल होते दिखें हैं। शिक्षा का इतना बुरा हाल है की ज्सिकी कल्पना भी नही की जा सकती हा आज कल खबरों में उनका साइकिल  वितरण बहुत छाया रहा मगर प्राइमरी स्कूल का हाल बहुत बुरा है जो की बुनयादी शिक्षा की नीव होती है जहाँ टीचर को ही कुछ नही आता तो वो  बच्चे को क्या पढ़ाएंगे और जिनको आता है वो कुछ पढ़ना नही चाहते ये ऐसी समस्सया है जिससे अगर नितीश कुमार को निपटना है तो पहले साल ही उसपे काम शुरू करना होगा मगर गठबंधन के सरकार में ये मुश्किल लगता है। कम व बेश ये सब किया कराया उनका और उनके सहयोगी का ही है इसीलिए ये इकरार कर पाना उतना आसान नही होगा उनके लिए के ये सारा सिस्टम ही रद्दी है।

Wednesday, 28 October 2015

ज़िन्दगी कहीं चैन से गुजरी है जो गुजरेगी

ज़िन्दगी कहीं चैन से गुजरी है जो गुजरेगी
ये तो मौत है जो एक दिन वफ़ा लेके उतरेगी।


हसीन सपनो सा मुकद्दर था कभी जमाने में
किसी का वक्त निकला है सिर्फ दो रोटी कमाने में।

स्याही मेरे कलम के कुछ यु बिखर गए
दफ्तर व घर में जैसे मेरे ज़िन्दगी उजर गए।


हुक्मरानी देखि तो अपने हाकिम में ही देखि
बेगुमानी देखि तो एक आलिम में ही देखि।


शरीफ इंसान कहाँ दीखते हैं यहाँ तो सब बेवक़ूफ़ है
दो पैरों के जानवर देखे जो एक अलग ही मख्लूक़  है।

Tuesday, 27 October 2015

A boy called Aasim -1

A boy called Aasim -1

A boy Aasim, who crossed his twenty second and still looks as just entered in teen club, equipped with engineering degree, load of friend and normal social life, charming innocent and lovely face with a mole on right eyebrow; people said who had mole on eyebrow fall in love in early age but this guy make that wrong and never found a chance to date a single girl in 22nd year of his age.
As having social life also; he was little popular in his relative for hour less and dedicated help to any one including unknowing person,  he love to help other and it make him little happy and busy; other side boy of his age were tiring with their relationship.
Apart from some event this guy never feels repentance for their bumpy life circumstance of 21st century. But some time he found himself alone and shameful on his disposition and spent several hours on mirror nonetheless any how standing on mirror not going to help either.
Passing, high school was not so smooth for him but he was good in his middle and primaries excellent perfectly excellent!!
Whole day reading after 6 O’clock in the morning and playing game in evening with boarding school friends, then keeps busy in extra curriculum stuff in the late night including wickedness of childhood, one thing which I notice was the dedication of obligation and supremacy to impress the other in a second, really it was tremendous things, which make him special to steal the glimpse of every girl but what he thought; girl will do every things and never scuffle on that issue. He don’t knew the simple science low “ every action need equal and opposite reaction” then only that action will be an action otherwise there will be the application of another  low which says “a work done on 90 degree is a work in physical but science doesn’t recognized it, it’s zero. The same is required when you inflowing in the search of your dream girl. The time, really make an effect when you bouncing back the affection of your opposite gender.
After few month of struggle he got job in software engineering company ‘Technocrat pvt ltd.’ and now his life is going to be change for  forever ,  in software there is much scope of enjoyment with respect to other sector of engineering, a sector of glamour and young Indian hubs, really a place where you can enjoy a lot if you are ready; that is the only place which reversing the Indian sex ratio;  most of girls will be found flirting more than one boy; but what about this shy guy who never reply a girls firmly a tough task to crack the life nuts.

Room of comfort


This is not going to help me either but still I am not strong enough to control the inner determination. Society is what? Nothing but a bunch of idiot, who have art to play with public emotion and sentiments  in fact it’s the process which gives him peak pleasure about their life. Since Stone Age to supersonic, stronger grows as much as they want and normal general class, which sometimes called as cattle class is busy in finding some room of comfort.

Saturday, 24 October 2015

जीवन का सच -2 

जीवन  की समस्सया क्या है ? इस का क्या उपचार है ?इससे निवारण का क्या उपाए है ?
दर असल जीवन में कोई समस्सया है ही नही तो इसका उपाए और निवारण की क्या जरुरत है। जिसे हम समस्सया कहते है वो दर असल एक प्ले स्टेशन का शो है जहाँ सबकुछ पहले से तये है बस हम ख़्वाह मख़्वाह उत्तेजित रहते हैं अपने अभिनय को लेकर हमारे अभिनय से कुछ नही बदलता सिवाए हमारे भरम के। 
दर असल हम इंसान एक छोटी सी समस्या पर भी इतना विचलित हो जाते हैं की मानो  हमरी ज़िन्दगी इसी समस्सया पर शुरू हुई है और यही खत्म हो जाएगी, उस समस्सया में इतना खो जाते हैं की जैसे  इस संसार का सबसे दुखी आदमी मैं ही हूँ , यह संसार का सबसे बड़ा दुःख है ,  संसार में मैं अकेला हूँ और वो कहावत बहुत  याद आने लगती है विपत्ति में सब साथ छोर जाते है इत्यादि। .....  मगर असलियत में ऐसा नही है ये सब सिर्फ हमारा भरम होता है न कोई  पहले आपके साथ होता और न ही उस वक्त साथ छोरता है।  
जिसतरह से सबका दिमाग अलग अलग प्रकार का होता है और उसके सोचने की शक्ति एवं तरीका अलग -अलग होता है वैसे ही अपने -अपने कठिनाई को देखने का तरीका भी अलग होता है एवं कुछ लोग उसे हलके में लेते हैं कुछ लोग प्रभावशाली तरीके से लेते है और कम व बेश सबकी कठिनाई दूर हो ही जाती है। किसी की समस्सया दूर होती है तो वो अपने आक़ा का शुक्र अदा करता है कोई उसे अपने चतुराई का फल मानकर खुश हो जाता है। मगर इनसब के बीच बिक जाता है इंसान और गिर जाता है जमीर। 
मैं ऐसा मानता हूँ की इंसान कठिनाई के समय में अगर हाथ पैर न भी मारे और सामान्ये दिनचर्या जिए तो भी उसकी ९९% समस्सया का निदान आसानी से हो जयेगा मगर इंसान घबराहट और निराशा में अपनी समस्सया और बिगाड़ लेता है। और इस सबके पीछे इंसान का दिमाग जिम्मेदार होता है  और खास तोर पे वो हिस्सा जिसमे इंसान अपनी मालूमात को संचय करता है।  मेरे हिसाब से इंसान के पास अगर संचय करने वाला हिस्सा न होतो इंसान को कोई कठिनाई ही नही होगी कठिनाई सिर्फ संचय करने आती है चाहे वो किसी भी तरह का हो। 
इसी लिए मेरी कल्पना है " इंसानो की  एक दुनिया जहाँ उसे कुछ याद नही रहता "

Friday, 23 October 2015

जीवन का सच -1

इंसानी ज़िन्दगी का अनुभव इतना करवा होता है शायद मुझे इसका अंदाजा नही था। किसी के दिमाग को पढ़ पाना या किसी को अपने जैसा बना लेना ये सिर्फ भरम है। सच तो ये है की इस दुनिया में किसी का दिमाग किसी से मेल नही खाता और सब एक दूसरे से  भिन्न है। अगर कोई किसी से अपने दिमाग का मेल खाने का ढोंग करता है तो वो सिर्फ एक दिखावा मात्र है और  किसी जरुरत के तहत ही है।
इस दुनिया में हर कोई अपने जरुरत के तहत अपना चाल चलता है बिलकुल शतरंज की तरह जब तक जरूरत बनी रहती है आदमी सब गन अच्छे लगते हैं जरुरत जैसे ही खत्म होता है उसी आदमी सारे  गुन अवगुण में बदल जाते हैं।
जरुरत लेने वाला इंसान तो अपनी जरुरत पूरी कर निकल जाता है मगर दूसरे इंसान की हालत क्या होती है शायद उसे कभी पता नही चलता होगा जब तक के ये उसपर न बीते। दूसरे इंसान का तो जीवन मानो बर्बाद ही हो जाता है वो कहीं का नही होता धोका खाने के बाद हर किसी को वो शक की नज़र से देखता है और नतीजा ये होता है की उसकी खुद की लाइफ तो बर्बाद होती ही है साथ  ही सामाजिक प्रतारणा भी झेलना परता है।
इसका सीधा सीधा मामला ये है की आप कितने दिल से किसी से जुड़े रहतें हैं। धोखा खाने वाले व्यक्ति से आप जितने दिल से जुड़े होंगे इसका प्रभाव उतना ज्यादा होता है। और अगर वो व्यक्ति आपके रिश्तेदारी में होतो इसका प्रभाव बहुत  ज्यादा हो सकता है, ज्यादा इतना जयदा की आप सोच नही सकते और अनजाने में कोई गलत कदम भी उठ जाते है। या नही तो उस घटना के बारे में सोच सोच कर  बाकी के बचे हुवे रिलेशन बोर होकर खुद ही दूर हो जाते हैं।
और फिर आपको कुछ भी अच्छा नही लगता संसार एक वीरान जंगल  सा लगता है जहाँ आप बिन काम के भटक रहें हो और साथ में डरते भी रहते हो की कोई जंगली जानवर न मिल जाये। मगर सही कहूँ तो मुझे तलाश है एक दरिंदे की। 

Friday, 16 October 2015

जन्मदिन की शुभकामनाएं देने वाले फसबूकिया दोस्तों का शुक्रिया।
रात के बारह बजे से लेकर शाम तक मोबाइल नोटिफिकेशन भेजता रहा और ये बताता रहा की आज कोई आपको याद दिल रहा है की आपके जीवन का एक साल और कम हो गया। मैं ऐसा बोलकर ये कतई नही साबित करना चाहता की मैं नकारात्मक सोचने वाला व्यक्ति  हूँ मगर अपना अंजाम याद करना मुझे जीवन जीने का एक नया आनंद देता है।
जहाँ मैंने ज़िन्दगी के २० साल पढ़ाई में निकाल दिए वहीँ अब सारी उम्र कमाई में लगनी है। और अनन्तः जीवन त्याग कर मृत्यु को प्राप्त हो जाऊंगा मगर ये सब जानते हुवे भी जीवन में अपार धन और असीम शक्ति प्राप्त करने की इछ्छा  तो हम सबकी होती ही है।
देश विदेश आकाश पाताल एक करने वाले हम  मानस मायावी दुनिया के एक नन्हे चिराग जैसे हैं जो चाहे जितना भी कोशिश करे मगर अंधकार दूर करने की जो सीमा उपरवाले ने तय की है उससे ज्यादह कुछ नही कर सकता।
अनन्तः यही कहूँगा की सब चलने दीजिये जैसे चल रहा है मगर कभी हार मत मानिये यही जीवन सच्चाई है।

Friday, 2 October 2015

नोटों पर है जिसका फोटो वो हैं मेरे गांधी जी

समस्त संसार जिसमें है समाया वो हैं मेरे गांधी जी
नोटों पर है जिसका फोटो वो हैं मेरे गांधी जी

काले गोरे का भेद मिटाया और दिया एक नया इतिहास
किया जिसने नमक आंदलन वो हैं मेरे गांधी जी

अंग्रेज़ो को लोहा मनवाया और छीना अपना भारत
सादगी की नयी रीत चलायी वो हैं मेरे गांधी जी

उपद्रव छोर अहिंसा से दिलवाई आज़ादी
जिसने सम्पूर्ण अधिकार दिलवाया वो हैं मेरे गांधी जी

शत्रु  को जिसने धूल चटायी और लिया अपना सम्मान
विदेशों में भी जिसके परचम लहराए वो हैं मेरे गांधी जी

विश्व को एक एहसास दिलाया इंसानियत को आम कराया
प्रतिशोध  का जिसने है पाठ मिटाया वो  हैं मेरे गांधी जी

किया समझोता कभी ना खुद से और सबको दिया सम्मान
हर जर्रे में जिसकी गूंज है जुन्जी वो हैं मेरे गांधी जी

Sarfu


Monday, 21 September 2015

चला आया प्रदेश कुछ कर गुजरने को /इस भीड़ भरी दुनिया में रह गुजरने को। //


चला आया प्रदेश कुछ कर गुजरने को
इस भीड़ भरी दुनिया में रह गुजरने को।

किसे पता है यहाँ क्या होता है
सर पे सवार हाकिम हरवक्त गरजने को।

मेरे महबूब ज़िन्दगी तो ये चंद सिक्के है
बेवफा हैं जो हैं तैयार हर वक्त बिछरने को।

महबूब की चाहत ने मुझे इस कदर घेरा है
भूल जाता हूँ मैं रज्जाक से सिहरने को। 

अमल से ग़ाफ़िल तू क्यों है सरफ़राज़
शैतान है तैयार हरवक्त निगलने को।

इस कदर टूट के बिखर जाता हूँ
जब अपनों के लिए कुछ नही कर पाता हूँ।

दूर हूँ मजलूम हूँ बेहया हूँ और मशुर हूँ
दिल में जो दर्द है वो किसी को नही बताता हूँ।

ये हवा जो चली कभी ज़िन्दगी में सिक्के बनाने के
चाह कर भी वक्त पे लौट कर नही पाता हूँ।

असलियत मालूम है तेरी बेवफा ज़िन्दगी
फिरभी दिल लगी ज़िन्दगी से करके क्या पाता हूँ।

दिखा नही तुझे कोई दानिश्वर सरफ़राज़
नादाँ से दोस्ती कर हमेशा उलझ जाता हूँ।

Sunday, 20 September 2015

दिल कश हैं नज़ारे आज़ाद ख़्यालों में
उलझा रहा इंसान बेकार सवालों में।

ये ज़िन्दगी नही थीं आसान मेरे रब्बे रहीम
शायद के कुछ वक्त गुज़रता रज्जाक के ख़्यालों में। 
  
छान दी दुनिया कुछ रिज़्क़ कमाने में
उम्र गुज़री है सिर्फ दो चार निवालों में।

जो चासनी है यहाँ इश्क़ ऐ रहीम में सरफ़राज़
वो देखि नही कहीं बड़े बड़े दिलवालों में।

 

Friday, 18 September 2015

पढ़ा दो वक्त की नमाज और हम जन्नती हो गए
एक दिन पसीना क्या निकला हम मेहनती हो गए।

देखे बड़े बेपरवा नज़ारे इस जहाँ में
कोई न बच स्का सब जहन्नमी हो गए ।

रोक पाया न मैं अपने इंसानी वजूद को या रब
देखा जो बाजार खुली खिरकी और नट खटी हो गए ।

क्या कोई इन अफ़सुर्दा  ख़्यालात में ज़िंदा है
हम किस काडर यहाँ उलझ के जहन्नमी हो गए।

किया तुमने अगर किताबों पे अमल ऐ सरफ़राज़
कुछ लोग यहाँ मरने से पहले ही जन्नती हो गए।
यहाँ मैं नही किसी का तो कोई तरफदार कैसा
सब सेहत्याब हैं यहाँ कोई बीमार कैसा।

तेरी हुक्मो पे मैं करता हूँ यहाँ तोबा
तुही सुनता है मेरी तो मैं गुनहगार कैसा।

बुराई से हूँ लबरेज़ मौसमो की भीड़ में
इतना करने पे फिर मैं माफ़ी का तलबगार कैसा।

उलझ गए हम इंसान कुछ सिक्को के फेर में
चंद दिन की ही जिंदगी है और यहाँ ये बाजार कैसा।

तेरी रहमत का नजूल जो हमपे बिखर जाये
मालामाल हो जाएं हम उसमें कोई हिस्सेदार कैसा।

अगर मैं मुसाफिर हूँ तो मुझे लालच क्यों है
गर सबकुछ तेरे हाथ है सरफ़राज़ तो तू लाचार कैसा।

Thursday, 17 September 2015

रखदिया था किसी अपने बेटे का सर जिबह करने को / हम तो जानवर हलाल कर के ही मुस्लमान हो गए। //

नामाकूल हैं हम खुद के लिए और कहते हैं इंसान होगए
कुछ कर लिया बुराई और पल में ही हैवान हो गए।

रखदिया था किसी अपने बेटे का सर जिबह करने को
हम तो जानवर हलाल कर के ही मुस्लमान हो गए।

पिट के डंका पुरे संसार में चल्दिये क़िबला को 
एक तवाफ़ करके समझे के मालदार ऐ ईमान हो गए।

भूल बैठा सारी उम्र की बुराई को या रब ये इंसान
झुका सजदे में तो लगा जन्नत में मेरे भी माकन हो गए।

करदे बारिश अपने रहमतों का सरफ़राज़ पे ऐ या रब
लगे इस गुनहगार को भी की हम दिन ओ ईमान हो गए।



Wednesday, 16 September 2015

गिरते हैं लोग अखलाक से अफ़लास और किरदार से तोबा / जो मिले किसी को ऐसी कामयाबी तो उस बात से तोबा//

गिरते हैं लोग अखलाक से अफ़लास और किरदार से तोबा
जो मिले किसी को ऐसी कामयाबी तो उस बात से तोबा।

इल्म हो मशहूर हो मगर इन्साफ न हो उसमें
करता हूँ में इस बात से और ऐसे अमलयात से तोबा।

ज़िंदा है गर तू तो हरकत में रहा कर
बेजान हो गर इंसान  तो इंसान से तोबा।

जो हो जाये जुल्म कहीं चंद सवालात से
बेबाक न हूँ और करूँ उन सवालात से तोबा।

ज़ालिम है यहाँ कोई और कोई मासूम दरिंदा
तोबा है और तोबा ऐसे इंसान से तोबा ।

खुद फंस गए सरफ़राज़ सरे आम एक बाजार
रो रो के किया करता है हर एक बात से तोबा

Tuesday, 15 September 2015

मेरी आवारगी तो देखो मरने पे भी लोग संवारने लगे /शायद यही देख कर तेरी नज़र झुक गयी होगी। //

ज़ख्म दिल पे दिया तो ज़िन्दगी मौत बन गयी होगी
गर सोया ही न था तो ये  ख्वाब कैसे बन गयी होगी

बद्सलूकी का कोई हिसाब नही रखता बे अदब दुनिया में
जो ज़िन्दगी लूटी तो जान भी निकल गयी होगी।

पा न सका तुझको हज़ार तहज्जुदों के बाद
शायद ज़िक्रे इलाही में चिराग ऐ सेहर बुझ गयी होगी।

मेरी आवारगी तो देखो मरने पे भी लोग संवारने लगे
शायद यही देख कर तेरी नज़र झुक गयी होगी।

लोगों ने देदिया कांधा खली हाँथ बे जेब कफ़न में /देर हो गयी उस दिन भी हमें कहीं संवरते संवरते। //

दुनिया की भीड़ में लड़खड़ा गए अब कहीं संभलते संभलते
जब आय अबुरा वक्त बुझ गयी चिराग ऐ सेहर कहीं जलते जलते।

वादो इरादों में उलझा रहा ज़िन्दगी भर कर दर किनार सबकुछ
जब चला डंडा ऐ कौनैन तो गिरने लगे हम कहीं चलते चलते।

भूल बैठा के मुसाफिर हु एक रह गुज़र का
देर हो गयी अब घरसे कहीं निकलते निकलते।

लोगों ने देदिया कांधा खली हाँथ बे जेब कफ़न में
देर हो गयी उस दिन भी हमें कहीं संवरते संवरते।

Saturday, 12 September 2015

परदेशियों से पांच तीखे सवाल।


परदेशियों  से पांच तीखे सवाल।

1 प्रश्न-आप को किस चीज़  की चाह अपने घरसे इतनी दूर ले आयी ?

जवाब -चाह का तो पता नही जी मगर अब हर चाह बे चाह हो गई है।  ऐसा लगता है मानो मेरे             ज़िन्दगी का यही मक़सद सा हो गया है।  एक सजा काट रहा कैदी जैसा।

२ प्रश्न - क्या कभी सोचा नही की आपका गुजारा  कम में भी हो सकता था आप सिर्फ धन के लोभ में इतना दूर आकर बेकार का रोना रोते हो।

जवाब -ईमानदारी से कहूँ तो आप सही बोल रहे हो।

३ प्रश्न - प्रदेश आते समय  वायु यान में बैठते ही इतनी शराफत कहाँ से आजाती आप परदेशियों में  जबकि इसका उल्टा वापस जाते समय कमीना पन फिर से वापस आजाता है।

जवाब - कुछ और पूछ लो ये अध्याय से बाहर है।

४ प्रश्न- आपका  लक्ष्ये क्या  है  कितना धन प्राप्ति के बाद ये धन लोभ छोर के अपने घर लौट जाओगे।

जवाब - ये कोई टारगेट नही है न कभी सोचा है पहले ही प्रश्न  में बोल दिया था की "  ऐसा लगता है मानो मेरे ज़िन्दगी का यही मक़सद सा हो गया है।  एक सजा काट रहा कैदी जैसा।" फिर वही चीज़ बार बार क्यों पूछते हो कोई काम नही है क्या ?

५ प्रश्न- पांचवा और अंतिम प्रश्न क्या कभी ऐसा लगा की ये धन से बढ़ के भी कोई चीज़ है जिसके लिए आपको अपने परिवार के साथ रहना चाहिए।

जवाब- देखो पत्रकार बाबू बहुत देर  से बर्दास्त किये हैं , सुन्ना ही चाहते हो तो जा कर मेरे घरवाले से पूछो को उनको इसका क्या लाभ हुवा है की हम बाहर हैं तो पता चलेगा।  कैमरा लेकर किसी को पाठ पढ़ाना  बड़ा आसान है। जानते हो क्या तुम !! भूके मरते थे मेरे बच्चे बड़ी मुश्किल से गुज़ारा होता था कोई नौकरी नही कोई अनाज नही बाबू लोगों का घरमें कोई  काम नही ऊपर से नखरा अलग इतना दुःख झेलें हैं जीवन में की ये दुःख अब कुछ नही लगता है और हम सात जीवन भी ऐसे जीने के लिए तैयार हैं।
दो साल में जब एक बार घर जातें हैं और बिटिया रानी के मुख पे वो हंसी देखते हैं तो हमें लगता है हम जीवन में सब कुछ खरीद लियें हैं। वैसे भी हम नर्किय  जीवन बिताते थे और अगर मान लें की हम अब भी नर्क में हैं तो कमसे कम  बाकि लोग को तो जीवन का सुख दे सकते है। और मत  निकलवाओ मेरे मुह  से नही तो बात बहोत हो जाएगी।

पत्रकार -माफ़ कीजियेगा मगर किसी ने बताया था की आप बहोत दिनसे हैं यहाँ और आप बहुत धन अर्जित किये हैं।
ता ऊ का उकरे बाप का है। …  बोल !!


भारत एक मनोरोगियों का देश है

भारत एक मनोरोगियों का देश है

यह में नही कहा रहा परन्तु यहाँ की समाज और संस्कृति बताती है की भारत एक मनोरोगियों का देश है। आपको हर जगह मनोरोगी मिलजयेंगे  भले ही हम और उन रोगियों को अपने सुविधा अनुसार परिभासित करते हो लेकिन हैं सब मनो रोगी।
हमारे कण कण में मनोरोग बसा हुवा है मुझे समझ नही आरहा है की कहाँ से शुरू करूँ और कहाँ खत्म क्यूंकि इसकी सूचि इतनी लम्बी है की इसका अंत नही है। खैर छोड़िये अगर ज्यादा लम्बा दिया तो लोग मुझे ही मनोरोग बता कर पागल खाने भेज देंगे।
समाज के हर तबके के  हर इंसान में ये बीमारी सदियों से बसी हुयी है। बस कुछ लोग हैं जो इनसे बचे होने का और उदारवादी होने का नाटक करते हैं मगर वो बस सिर्फ नाटक भर ही है उससे आगे कुछ नही है। हम मनोरोगी हैं इसका सबसे अच्छा उदहारण ये है की हम सब एक दूसरे को रोगी बताते हैं और अपने अंदर का रोग नज़र नही आता।

जीवन का पराओं

जीवन का पराओं

ज़िन्दगी हर दसक  के अंत में एक करवट लेती है और हमें कुछ नई योजना बनाने  की अधिसूचना  देती है। जैसे अगर आप ७, ८ ,९ साल में है तो आपको लाइफ में नटखटपन छोरके थोड़ा पढ़ाई पे धयान देना होता है ठीक वैसे ही जब आप दूरसरे दसक  में होते है तो आपको  भविष्ये  की चिंता होने लगती और उस वक्त आपको सम्भालना होता है अपने आपसे अपने आस पास के समाज के अच्छाई और बुराई से अपने सोहबत से और कठोर निश्चय लेना होता है एक प्रतिज्ञा करनी होती।
और ठीक उसी तरह जब तीसरे दसक  में होते है तो आपको अपने जीवन को व्यवस्थित करने का समय आजाता  है आपने अगर ठीक से हैंडल किया तो ठीक है नही तो इसके दूरगामी परिणाम बहुत गंभीर होते हैं और  हाथों में कुछ नही रह जाता और तब कुछ हासिल करने की सोचते हैं तो बस कुछ खास नही मिलता केवल गुजारा ही हो पता है।
और ३० से ४० का अरसा धन अर्जित करने का होता है इस पराओं में इंसान अपने आपको बहुत बहादुर चालक समझने लगता है इस दौर में इंसान जमीन छोरने लगता है और एक नए पैमाने का विस्तार करता है।
और   ४० से ५० का दौर वो दौर है जो आपके वस से नही चलता जैसे, इस दौर में आप अपने बच्चे की भविष्य की चिंता होगी मगर आप कुछ नही कर सकते केवल प्रयास कर सकते है वो भी अपने आपमें  क्यूंकि पढ़ना और असल शोक  पैदा होना ये आपके वस में नही होता दूसरी तरफ आपका वक्त आपके पिछले ४ दसक  में बोये  हुवे फसल के काटने जैसा होगा। इसमें आप वही पाएंगे जो आपने किया होगा जैसे अगर धन अर्जित किया होगा तो वो आपको शायद कुछ वक्ती सकूँ देने के काम आए।
लेट ६० में बस आपके पास सिर्फ खोने के लिए होता है पा नही सकते कुछ सिवाए अपने औलाद के नाम रोशन करने के मतलब अगर आपके औलाद ने कुछ अच्छा किया तो आपको सकूँ मिलेगा नही तो जाने वाली चीजों में आपकी सेहत सबसे पहले होगा धन आपका घटता जायेगा सकून जाती रहेगी और मूलतः आप इस दसक में आप अपने अगली पीढ़ी को फलता फूलता देखेंगे और आप उनपर निर्भर होंगे धन से शायद सबको नही हो मगर एह्साह और सहारा तो चाहिए ही होगा।

६० से ७० के बीच की कोई बात नही कह पाउँगा शायद वो थोड़ा कठोर होगा मेरे लिए कहना मगर अच्छा यही होगा की अल्लाह हम सबको सेहत दे।

Monday, 7 September 2015

जन्नत ऐ हूर में भी ऐसी हुस्न किसी ने कहाँ देखि है

तेरी एक मुस्कराहट में जो लाखो अदा देखि है
खिलखिलाहट में तेरे एक अजीब नशा देखि है

मोहब्बत यु तो कभी नही हुवा किसी महजबीन से
तुझमे में जो आशिकी की अदा देखि वो कहीं और कहाँ देखि है

करता नही कोई बड़ाई तेरे अंदाज़े मोहब्बत का
ऐसा कोई अल्फ़ाज़ मिले वो अल्फ़ाज़ कहाँ देखि है

तेरे होंटो की नमी अब भी महसूस करता हूँ
देखे हैं है कई गुलाब मगर ऐसी कहाँ देखि है

तेरे आँखों में काजल कोई रंगीन सी  चाहत की स्याही
जन्नत ऐ हूर में भी  ऐसी हुस्न किसी ने कहाँ  देखि है 

Saturday, 5 September 2015

शिक्षक दिवस की संध्या पर

शिक्षक दिवस की संध्या पर 

शिक्षक दिवस पर आप सभी को बहुत बहुत बधाई। सभी के जीवन में कोई न कोई शिक्षक होता ही है।
मैं अपने जीवन की बात करूँ तो वो गाव का  पहला पाठशाला जिसमे दो शिक्षक से मेरे जीवन में शिक्षा की शुरुआत हुई। वैसे कहे तो इनसे भी पहली शिक्षिका मेरी माँ थी मगर माँ के गुणों के बारे में क्या बात करना ये शायद वैसे ही होगा जैसे अपने सिरके बाल गिनना, यहाँ सिखाये गए पाठ  दुनिया के किसी और पाठशालों में नही मिलता।

    वो स्कूल जो आम के पेड की छाया में चलते थे और गुरु जी के लिए कुर्सी का बंदोबस्त पास के ही एक घरसे हुवा करता था। हम प्रतिदिन स्कूल शुरू होने से पहले कुर्सियां उठा लाते थे और शाम को वापस रख आते थे।  बड़ा आनद आता था तब दुनिया के बारे में कुछ पता ही नही था लगता था यही सबकुछ है परन्तु ज्यूँ ज्यूँ बड़े होते गए और दुनिया का ज्ञान होता गया।  जब तक प्राइमरी स्कूल की शिक्षा खत्म हो चुकी थी और मुझे मिडिल स्कूल जाना था फिर बड़े भाई और पिता के सहमति से मुझे बोर्डिंग स्कूल भेज दिया गया मुझे बोर्डिंग स्कूल का कांसेप्ट बहुत अच्छा लगता था, वही रहो खाओ और सिर्फ पढ़ो बाहर की कोई चिंता नही करनी। 

   और इसके बाद कई जगह पढ़ाई की मैंने मगर शायद जो अनुभव गाँवो के पाठशाला में हुवा वो  कहीं नही हुवा। उसका तब एहसास नही हुवा करता था मगर अब याद करने से  लगता है की कई सारी घटनाओं का लिंक हमारी संस्कृति  से था जो शहरों के कान्वेंट स्कूलों में नही मिला और शायद इसलिए कहते है की असल भारत गाओं में बस्ता है शहर में वो दीखता है जो हम देखना चाहते हैं।

   अंत  में उन सभी शिक्षकों को मेरा सलाम जिन्होंने मेरी ज़िन्दगी को संवारा उनकी आयु को खुदा लम्बा करे एक उम्दा सेहत के साथ।
 

Wednesday, 2 September 2015

गिरके भी सम्भलने की क्या कोई इल्तेजा करता है

ज़िंदा हूँ अभी मैं शायद कोई मेरे लिए दुआ करता है
गिरके भी सम्भलने की क्या कोई इल्तेजा करता है 

ये तो कुछ ज़िम्मेदारियाँ है मुझपे सरे आम होने की
नही तो इस दुनिया में भी रहने की क्या कोई दुआ करता है 

बड़ा अहमक़ है ये इंसान, मगरूर और मक्कार भी
वजूद कुछ भी नही और जा बजा होने की दुआ करता है

लिखवा के शिजरा कब्र पे कभी कोई जावेद  हुआ
ये इंसान है की है  बस हर कुछ पाने की दुआ करता है

Saturday, 15 August 2015

देर से ही सही मगर एक दिन सवेरा हो गया

आज ही वो दिन था जब सवेरा मेरा हो गया
शहीदो की बलि चढ़ी और देश मेरा हो गया

भगत सिंह, राजगुरु और अशफाकुल्लाह सारे सो गए
देर से ही सही मगर एक दिन सवेरा हो गया

हिन्द को लूटा किसी ने, किसी ने चाक सीना कर दिया
वो दौर था किसी वक्त का अब ये दौर मेरा हो गया

खुदगर्ज थे जो हुक्मरां सरहदों के पार के
शान भी जाती रही और झंडा भी मैला होगया

सिर्फ रस्म ऐ आज़ादी नही जज़्बा भी होना चाहिए
करलूं रुख उसकी तरफ तो वो ख़ित्ता भी मेरा होगया

Thursday, 13 August 2015

कई रंग मिलते है मेरे आंसुओ के समंदर में / गिरगिटी रंग से लोगों ने मुझे छला जो था//

कहाँ गया वो हसीन वक्त बचा जो था
दर्द बे परवा है जख्म से जो अभी नुचा जो था

कई रंग मिलते है मेरे आंसुओ के समंदर में
गिरगिटी रंग से लोगों ने मुझे छला जो था

एक शाम को दोपहर समझ बैठा
वक्त ने कुछ ऐसे डसा जो था

मुस्कानं भी कुछ खौफनाक लगती है
किसी मुस्कान ने मुझे ऐसे ठगा जो था

ज़िंदगानी मर्द की एक हवालात ऐ ख्वाब है
मेरे बूढ़े बाप ने मुझसे कभी कहा जो था

करो कुछ काम तो ऐ सरफ़राज़ वक्त के साये में
लाओ ताकत जिसमें खुदा को पाने का नशा जो था

Sunday, 9 August 2015

जिसके हिस्से में कोई तल्ख़ियात नही



स्याह बादल ही तो है कोई खौफनाक रात नही
आंसुओ का सैलाब है ये कोई बरसात नही

कहीं दूर निकल गया कुछ तलाश की खातिर
अब पता चला मेरी तो कोई बिसात नही

बड़े खुशनुमा बनके हम अकड़ते थे
वक्त ने दिए जखम, अब कोई औकात नही

बेवक्त ही शायद किसी ने वक्त को चलाया होगा
वरना मेरे वक्त में इतनी भी खुराफात नही

दर्द ऐ इंसान भी क्या समझे ये नादाँ वक्त
जिसके हिस्से में कोई तल्ख़ियात नही

मैं इतना भी परेशान नही होता सरफ़राज़ 
शायद तेरे इबादात की कबूलियात नही

Monday, 22 June 2015

गिर जाये गर अख़्लाक़ तो उस अख़्लाक़ से पर्दा

हो बेवक्त बात तो उस बात से पर्दा
गिर जाये गर अख़्लाक़ तो उस अख़्लाक़ से पर्दा


औरों में क्या तू देखे, गुम नाम है हस्ती
गिरजाये गर किरदार, किरदार से पर्दा


फहिश है ये दुनिया, बेकाबू यहाँ  लोग
अपनी ही फ़िक्र रख तू और कर जजबात से पर्दा

तख़्त बदल लोगे ताज बदल लोगे

तख़्त बदल लोगे ताज बदल लोगे
ज़माने में जीने का अंदाज़ बदल लोगे
जिसने दिया नाम तुझको अपने नाम के साथ
क्या इस गरूर इ जवानी में वो नाम बदल लोगे

अखलाक पे अख़्लास पे ईमान पे फ़ित्ना

अखलाक पे अख़्लास पे  ईमान पे फ़ित्ना
जो करलो कोई बात तो हर बात पे फ़ित्ना

मोअज़्ज़िन की अजान हो या मंदिर से कोई शोर
यहाँ होने को हो जाता है हर बात पे फ़ित्ना

यहाँ  काम नही कोई फकीरों व शहँशा का
जो करलो कोई  काम तो उस काम पे फ़ित्ना

फारिश की जमीन हो या अफ़ग़ा का कोई सेहरा
इस धरती के हर जर्रे के नाम पे फ़ित्ना

बड़ा बनके कोई दिखाए, जो  हो कोई बड़ा
फिर रुक जाये झगड़ा और किस बात पे फ़ित्ना

इंसान है तुझको जाना इस  दारेफानी से
लड़ता है क्यों तू और किस बात पे फ़ित्ना 

Saturday, 20 June 2015

जैसे कोई मेहमान आगया है

रातों में भी जब शान आगया है
जैसे कोई मेहमान आगया है
मोमिनो लगाओ दर पे हाजिरी
के अब ये माहे राजान आगया है

शायद ये वक्त आखिरी हो तुम्हारा
किसे पता के कब अख्तताम् आगया है
तकब्बुर कभी न करना अपने विसाल का
इबादत करो तो ऐसे, कोई ग़ुलाम आगया है

Monday, 15 June 2015

अब पता चला के ज़िन्दगी क्या है

गर खो गया मैं तो गम क्या है
न हु मैं यहाँ तो कम क्या है

जो मुझे ज़िन्दगी में कोसते थे
मौत पर कहते है के अब क्या है

मरके ज़िंदा हूँ, या जी कर मुर्दा था
मरगया जो मैं, तो अब अफ़सोस क्या है

देखे बड़े तरपने वाले मौत के जनाजे पे
ज़िन्दगी में न पूछा जिसका के हाल क्या है

मरके बड़ा खुश हूँ में इस दर पे सरफ़राज़
अब पता चला के ज़िन्दगी क्या है

Sunday, 7 June 2015

जलाया दिल को तो जिस्म भी जल गया होगा

जिसे चलना सिखाया, बताया के, ये क्या है 
और अब वो कहता है ये मरौवत  क्या है

बड़ा शौक था की तुझे परवाज ऐ आसमान देखूं
नही गर कोई शौक तो ज़िन्दगी क्या है

ये मेरा तरीक न था की तुझे उस जान भेजूं
कोशिश फिर भी की के मुश्किल क्या है

ऐ अहले बरादरान मुझे  माफ़ करना
गर मांग ली माफ़ी तो  मुद्दा क्या है

जलाया दिल को तो जिस्म भी जल गया होगा
ख्वा मख़्वाह परेशान होने की जरुरत  क्या  है
   

आदम को निकाला जाता जब गेहूं वो खा लेते हैं

तौहीद की बातें करता है,तक़दीर की बातें करता है
लेकिन यह दिल हरजाई, रोटी के पीछे मरता है.

आदम को निकाला जाता जब गेहूं वो खा लेते हैं
कुछ सीख मेरे ऐ दोस्त, तू रोटी पे क्यों मरता है

जीवन सुख दुख  का मेला है
फिर क्यों जीवन की बातें करता है

गर जान रहे हो तुम इस दुनिया की सच्च्चाई को 
फिर दुनिया से क्यों डरता, क्यों रोटी के पीछे मरता है

Saturday, 6 June 2015

बड़ा बेबस सा होगया मैं इस ज़माने में

बड़ा बेबस सा  होगया मैं इस ज़माने में
जाने क्या खता हुई चंद सिक्के कमाने में

कुछ काम अधूरा सा एक ख्वाब पुरानी सी
दिल उलझा रहा कुछ ऐसे ही छोटे से फ़साने में

कब तक रोकूँ इस आह को या रब
उलझा सा रहा हूँ मै तदबीर बनाने में

Wednesday, 27 May 2015

जबसे वतन छूटा है चेहरा उदास रहता है

जबसे वतन छूटा है चेहरा उदास रहता है
नयी फ़िज़ाओं में कहाँ वो बात रहता है

वक्त कट जातें हैं युहीं दफ्तर की नौकरी में
अब वो लगन न वो होश ओ हवास रहता है

अपना तो हाल है बुरा सुखी रोटी भी नसीब नही  
दोस्त अहबाबों का मेरे लिए कुछ अलग ही कयास रहता है

ये जमीन या वो जमीन , जमीन तो बस खुदा की है
फिर इसमें इतना क्यों इत्तेफ़ाक़ रहता है

थक गया हूँ या रब इस इस दुनिया की आपा धापी से
कोई ऐसी जगह बता जहाँ इंसान को इत्मीनान रहता है

वक्त ने कैसी बे लज़्ज़ती बख्शी है सरफ़राज़

बिन कहे बात बिगड़ गयी ऐसा लगने लगा है
बात बात में बात खो गयी ऐसा लगने लगा है

ना कहें तो गुनहगार हो जाऊँ अनजाने जुर्म का
कोई जुर्म हमसे हुवा नही पर ऐसा क्यों लगने लगा है

ये जो दोस्त व हबीब हैं मेरे मुझसे  दूर होने लगे हैं
जब मेरी कोई खता नही तो ऐसा क्यों लगने लगा है 

वक्त ने कैसी बे लज़्ज़ती बख्शी है सरफ़राज़
खुद अपने आपसे ही मजबूर लगने लगा है

ऐ ज़िन्दगी और न आज़मा अब टूटने लगा हूँ



ऐ ज़िन्दगी और न आज़मा अब टूटने लगा हूँ
ये आजमाईशों के समंदर में मैं डूबने लगा हूँ

ये हसरत थी कभी एक आशयान बनाने की
बस अब एक याद है और इसे भूलने लगा हूँ

कभी सोचा था ऊँचे आश्मान को झुकाने की
वक्त खाई चपत हर मोरे पे झुकने लगा हूँ

ऊँचे परबत से भी ऊँचा था मेरा गुमान
मगर अब एक झोंके से ही टूटने लगा हूँ

Thursday, 29 January 2015

ये महफ़िलें और वीरानियाँ यकसां नही होती

ये महफ़िलें और वीरानियाँ यकसां नही होती
जब कहर हो बरपा तो कोई मरऊऊत नही होती

जख्म अपनों के ही खाएं हैं  हमने
गैरों में कभी इतनी जुर्रत नही होती

क्या अफ़सोस अब तेरी बेवफाई पे ज़िन्दगी
कभी हँसू  तुझपर ऐसी फुर्सत नही होती

दिनभर उलझा रहूँ दफ्तर के उलझनों में
खुल के कुछ पल गुजारु हसरत नही होती

अब तो अपने गम में ही ख़ुशी ढूंढ लेता हूँ
ख़ुशी को कभी बुलाने की जरुरत नही होती

चेहरा नौ, लब सुर्ख अब तो बस हवाईयां सी है
 कोई लिपट भी जाये तो  उल्फत नही होती

सूखे हुवे पेड ठाहणियों में भी न कोई आस है
चलता नही जादू और कोई  हिकमत नही होती

चेहरा तलाशता हूँ चेहरे के पीछे झांक कर


जिंदगी कुछ यू गुज़ारा हमने, जैसे कोई जंग हो
दुनिया ने भी कुछ यूं लूटा जैसे  कटी पतंग हो

चेहरा तलाशता हूँ चेहरे के पीछे झांक कर
चख के देखता हूँ की शायद ये शकरकंद हो

गिरा जो आसमान से तो टुकड़े टुकड़े हो गए
अब ऐसा नही लगता की दिल में कोई उमंग हो 

मूह मोर लिया अपनों ने बस साथ रब का था
कौन समझेगा ये दुखड़ा, गर कोई अकल्मन्द हो

नए जिंदगी के मोर पे कई दोस्त बनाये हमने
मिला नही ऐसा कोई जो की एहसानमंद हो

बेपरवा महफ़िल से तुझको और क्या है उम्मीद 
यहाँ नही कोई ऐसा जो थोड़ा भी अखलाक़मंद  हो

दिया सूरज को बना लिए फिरता हूँ शहर ब शहर
शायद कोई ऐसा मिले जो कुछ तो हुनरमंद हो

फ़िज़ा भी मैली हो गयी, हवा भी नमकीन हो
कोई नही बचा अब ऐसा जो की सेहतमंद हो

Friday, 23 January 2015

सयासात है बड़ी गन्दी कहीं और हम चलते हैं

दिललगी कर लिए तो क्या कर गुजरते हैं
पोशाक मेरी पहन कर मुझसे ही झगरते हैं

यहाँ साफ़ जगह नही कोई
सारे बिखरी यहीं  बस्ते हैं

ये सयासत  है दिल्ली का मेरे भाई
लोग यहीं बढ़ते और यहीं तो उलटते हैं

दावा बहूत करते हैं जनता के ख़्यालों का
जब वक्त निकल जाये तो जज्बात निगलते हैं

बेबस है ये जनता हम सबको पता है
फिर आह को लेकर क्यों दूर तक चलते हैं

सब एक साथ हैं फिर क्यों  झगड़ते  हैं
हम जनता है  हमें बेवक़ूफ़ समझते हैं

आते है सभी झुण्ड में करते हैं मुशाफा
ये लोग बड़े नादाँ जो साथ में रहते हैं

उन्हें पूजने लगे हैं जिन्हे पूछते न थे
गम में शरीक हैं जैसे बड़े दूर तक फिरते हैं

ये कर्मदो का झुण्ड है, आप ही गले लग जाएं कभी
जो काम निकल जाये तो कहीं भाग निकलते हैं

कभी याद नही हमको कुछ काम हुवा होगा
सब झूट है कहते, सच बात निगलते हैं

जब भी कुछ याद आये उसका नाम लिया करो


जब भी  कुछ याद आये उसका नाम लिया करो
जब तुम उलझ जो जाओ  उसको याद किया करो

ज्यादा परेशान न हो और ना इरादे को  बदल
कुछ वक्त मस्जिद में गुजार रब का जिक्र किया करो

उलझने लाख सही कोई मर तो नही जाता
जिन्दा जबतक हो पूरा खुलके जिया करो

ये कौन है जो  फलक वालों की बात करता है
देख के एक नेमत शुक्र उसका अदा करो

नही समझ पाओगी अगर मिट गए हज़ार बार भी
बस कुछ बात है उसकी उस बात को समझ लिया करो

अदा बातिल में,  मकतूल में और काफ़िर में भी है
जो तुम मुसलमा हो तो मुसलमा का हक़ अदा किया करो

बेबसी का कभी बहाना नही करना  ऐ असरफुल मख़लूक़ात
जो बैठे रहो जहां बैठे वही जिक्रे इलाही  कर लिया करो

एक महबूब से है वाबस्ता मेरे जिंदगी के औकात
भूल गए उसी  महबूब को थोड़ी तो हया करो

मिलता है हर रोज़ नया इस्लाम का मुहाफ़िज़
गर हो सच्चे मुसलमा तो नमाज़ वक्त पर अदा करो

लाता है वो हर रोज़ नया लोगों में शगूफा
बैठ कर कभी इल्मे अमल पैरा हुवा करो 

बात इतनी ही नही की, पूरी बात कह पाऊँ
कुछ कह दिया कुछ खुद ही समझ लिया करो

फकत थोड़ी सी ही बात सालो से नही समझा
सरफ़राज़ तुम खुद भी कुछ समझ  लिया करो

Thursday, 22 January 2015

एक आरज़ू थी की कुछ आरज़ू करते

एक आरज़ू थी की कुछ आरज़ू करते
कभी साथ बैठ कर कुछ  गुफ्तगू करते

न अपनों का सहारा न गैरो से कोई जिल्लत
इस महफिले वीरान में किसकी जुस्तजू करते

जिंदगी बनके रह गयी एक मुर्दा सी हयात
जिन्दा रहते भी तो जिन्दा रहके क्या रजु करते

अजिब खुशनुमा सी थी जिंदगी तेरे ख़्वाबों में
खाहिश थी के मिलके सब हु बहु करते

Monday, 19 January 2015

ये इरशाद ऐ रब्बानी है मेरे भाई

ये वो भूक नही ये भूक ऐ रूहानी है मेरे भाई
इससे हैट कर भी क्या कोई जिंदगानी है मेरे भाई

चला आया हूँ इस महफ़िल ऐ दुनिया में किसी की मर्जी है
एक इम्तेहान है और यही जिंदगानी है मेरे भाई

क्यों ना करूँ में उसकी जात को हजार सजदा
वो हर साईं पे है क़ादिर उसकी ही निगहबानी है मेरे भाई

अलफ़ाज़ कहा से लाऊँ के कुछ बयान कर सकूँ
मेरी ही नही सिर्फ ये हर सए की जुबानी है मेरे भाई

फंस गया है सफ़राज़ इस दुनिया की उल्फतों में मगर
रास्ता दिखाइएगा कोई ये इरशाद ऐ रब्बानी है मेरे भाई

उनका इन्तेजार है

हाथो में लिए फिरता हूँ चराग के किसी की तलाश है मुझे
ये अधूरी जिंदगी और किसी की आस है मुझे

मिलजाए अगर तुझको तो कहना उनसे मेरे दोस्त
आज भी उनका झगड़ना याद है मुझे

जिस राह पे कभी वो चला ही न था
क्यों  उस राह पे उनका इन्तेजार है मुझे

बरसात की रात और सुनसान राहें

एक सुनसान सड़क पर और क्या होगा
जब जिंदगी ना मुकम्मल हो तो क्या होगा

इस सरसराती हवाओं वाली बरसात की रात
शायद बादलों ने कोई ग़ज़ल कह दिया होगा

शोर करती हुई आसमान से गिरतीं ये बुँदे
जैसे मकता पे वाह वाह कह दिया होगा

इन बिजलियों में भी एक तूफ़ान सा मचा है
कोई शायर है जो मैखाने को चल दिया होगा

ये तेज़ बादलों की गरग्राहट और फिर रौशनी
मुमकिन हो की चाँद आज कहीं  छुप गया होगा 

दूर तक फैला सड़को पे बेबस सन्नाटा
जाहिर है की हर कोई डर गया होगा

मैं ही हूँ अकेला इस गुमनाम सड़क पर
शायद के महबूब इधर या उधर गया होगा

Sunday, 18 January 2015

मुकम्मल सी गजल लिखदूं पर गुम नाम न हो जाये

उलझा हूँ तेरे ख्यालों में के शाम हो जाये
आने की खबर थी तेरी के एक जाम हो जाये

मोहब्बत न देखू तुझमे तो कोई बात नही
कुछ बात है फकत तुझमें वो सरे आम हो जाये

लिखता हूँ कलम से तो बस तेरा नाम ही है आता
डर है कहीं इसी आदत से तू बदनाम न हो जाये

अखलाक़ है अख़्लास है और चाह भी है तुझमे
चाहत भी यही अपनी की हम एक नाम हो जाये

अपनी ही तसल्ली को सही कुछ और भी तर्पुंगा
इससे पहले की अपनी जिंदगी का इख्तताम् हो जाये

तेरा नाम लिखे बिना ही क्या कुछ नही लिखता
मुकम्मल सी गजल लिखदूं पर गुम नाम न हो जाये

शायद मेरे सलीक़ा ऐ इश्क़ से इंकार हो उसको

ज़रूरी तो नहीं के मेरा ही इन्तेजार हो उसको
कोई भी हो सकता है जिसपर ऐतबार हो उसको

तसौऊर तेरे मिलने का सवालों में है उलझा
के तजवीज मेरे ख्यालों का न इकरार हो उसको

तड़पा हूँ बहूत में अपनों के ही महफ़िल में
शायद के मेरे तड़पने का इन्तेजार हो उसको

बिखरते देख एक अफ़सोस भी न हुवा उनको
शायद मेरे सलीक़ा ऐ इश्क़ से इंकार हो उसको

Friday, 16 January 2015

वही याद है जो अब जाता नही कभी


ये जो मेहबूब है मेरा dikhata nhi kabhi 
वफ़ा तो है उसमे पर जताता नही कभी

मुख्लिस भी है और मसरूफ भी
गुज़रता इधर से रोज़ आता नही कभी 

गुजरते हुवे राह में जो धोके से छू गया था     
वही याद है जो अब जाता नही कभी

Thursday, 15 January 2015

में यहाँ हूँ और कितने बूढ़े निकल गए

याद आयी जब घर से कमाने निकल गए
रूह काँप उठी और जमाने सिहम गए

ऐ जिंदगी किसकी तलाश में है तू
में यहाँ हूँ और कितने बूढ़े निकल गए

Wednesday, 14 January 2015

एक दिन जिंदगी खुद ही लूट जाती

जिंदगी

कश मकश में जिंदगी पर जाती है
दरबारों में हया गिर जाती है 

भूल जाते हैं  जिंदगी की सरहदों को हम
और फिर आपसी रिश्ते भी लूट जाते हैं

जब तक के होश आये सरफ़राज़
एक दिन जिंदगी खुद ही लूट जाती

Monday, 22 December 2014

                       ज़िन्दगी

हम हैं ज़िंदा ये मक़सद नही सिर्फ जिंदगी का
क्या हुवा जो न मिला साथ मुझे दिल्लगी का !!

ख़त्म युहीं नही होता सफर इस दौर ऐ फानी का
बहोत हसीन औसाफ है बाकि अभी अपने ज़िंदगानी का !!

नहीं सिक्वा है अपनों की बे रुखानी का
न गम हैं उनके दूर जाने का !!

ज़िन्दगी तस्सवुर है एक गमगीन ख्यालों का
लहुँ जिसमे बहता है मोहब्बत करने वालों का !!

आ गया हूँ आब बाहर मोह नही है उन चाहने वालों का
लूट गयी है जिंदगी खो गया है तस्सवुर सामने वालों का !!

आओ एक नयी जिंदगी बनाये नए अरमानों का
चलो नयी डिक्शनरी बनाये कुछ नए अल्फ़ाज़ों का !!

1 May - Labor Day (International Workers' Day)

Labor Day, observed on May 1st, holds significant importance worldwide as a tribute to the contributions of workers towards society and the ...