एक आरज़ू थी की कुछ आरज़ू करते
कभी साथ बैठ कर कुछ गुफ्तगू करते
न अपनों का सहारा न गैरो से कोई जिल्लत
इस महफिले वीरान में किसकी जुस्तजू करते
जिंदगी बनके रह गयी एक मुर्दा सी हयात
जिन्दा रहते भी तो जिन्दा रहके क्या रजु करते
अजिब खुशनुमा सी थी जिंदगी तेरे ख़्वाबों में
खाहिश थी के मिलके सब हु बहु करते
कभी साथ बैठ कर कुछ गुफ्तगू करते
न अपनों का सहारा न गैरो से कोई जिल्लत
इस महफिले वीरान में किसकी जुस्तजू करते
जिंदगी बनके रह गयी एक मुर्दा सी हयात
जिन्दा रहते भी तो जिन्दा रहके क्या रजु करते
अजिब खुशनुमा सी थी जिंदगी तेरे ख़्वाबों में
खाहिश थी के मिलके सब हु बहु करते
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