आज जुमा का दिन है। एक खास दिन मुसलमानो के लिए और एक खास दिन मुस्लिम देशो में काम करने वालो के लिए क्यंकि इन देशो में जुमा को ही हफ्ते की छुट्टी होती क्यंकि मुसलमानो में ये इबादत के लिए एक खास दिन हैं।
मेरी ज़िन्दगी में जुमा की बहुत अहमियत है जब मैं बोर्डिंग स्कूल में पढता था ( सल्फिया स्कूल, दरभंगा ) तब वहां भी इसी दिन छुट्टी होती थी सुबह से ही मनो अफरा तफरी का माहोल हो जाता था जैसे आज ईद हो करीब २०० सौ से ज्यादा बच्चे हॉस्टल में रहते थे और इस वजह से बहुत भीड़ भाड़ और चहल पहल हुवा करता था। मनो कोई रेलवे स्टेशन हो हर कोई अपने एक खास मकसद और मजिले ऐ मक़सूद तक पहुँचने के लिए यहाँ आया हो। सुबह से ही बच्चे क्रिकेट खेलते हुवे दिख जाते थे हु हल्ला शोर शराबा तालियों की गरगराहट जैसे सुबह के पहले पहर में चिरयों ने चमन में एक साथ कोई साज छेड़ा हुवा हो।
फिर ११ बजते २ सभी तैयार होकर मस्जिद की तरफ चलदेते थे जहाँ मस्जिद का एक खास हिस्सा हम बच्चों के लिए फिक्स था वहां कोई दूसरा नही आता था।
बड़ा खुशनुमा लम्हा था वो मेरे ज़िन्दगी का जहाँ सिर्फ दो काम था पढ़ना या खेलना। मुझे क्रिकेट से दिलचस्पी नही थी सो या तो मैं कोर्स की किताबें पढता था या कुछ ड्राइंग बनता या कहानियों की किताबों में मशगूल रहता था।
तब सब काम अपनी मर्ज़ी से करता था और अब काम ज़िन्दगी के इशारे पे करता हूँ। ग़ुलाम हूँ ज़िन्दगी का। ज़िन्दगी के ऐश ओ आराइश और ज़िम्मेदारियों ने इतना घेरलिया है की उसकी भरपाई के लिए सिर्फ पैसा पैसा बस यहीं देखता हूँ और कुछ नज़र नही आता। सिर्फ झूठी और खोखली शान के लिए जीता हूँ। और इसमें कोई शक नही की इस ज़िन्दगी के आपा धापी में इतना उलझ गया हूँ की आख़िरत की ज़िन्दगी के तैयारी में कोताही हो जाती है।
मेरी ज़िन्दगी में जुमा की बहुत अहमियत है जब मैं बोर्डिंग स्कूल में पढता था ( सल्फिया स्कूल, दरभंगा ) तब वहां भी इसी दिन छुट्टी होती थी सुबह से ही मनो अफरा तफरी का माहोल हो जाता था जैसे आज ईद हो करीब २०० सौ से ज्यादा बच्चे हॉस्टल में रहते थे और इस वजह से बहुत भीड़ भाड़ और चहल पहल हुवा करता था। मनो कोई रेलवे स्टेशन हो हर कोई अपने एक खास मकसद और मजिले ऐ मक़सूद तक पहुँचने के लिए यहाँ आया हो। सुबह से ही बच्चे क्रिकेट खेलते हुवे दिख जाते थे हु हल्ला शोर शराबा तालियों की गरगराहट जैसे सुबह के पहले पहर में चिरयों ने चमन में एक साथ कोई साज छेड़ा हुवा हो।
फिर ११ बजते २ सभी तैयार होकर मस्जिद की तरफ चलदेते थे जहाँ मस्जिद का एक खास हिस्सा हम बच्चों के लिए फिक्स था वहां कोई दूसरा नही आता था।
बड़ा खुशनुमा लम्हा था वो मेरे ज़िन्दगी का जहाँ सिर्फ दो काम था पढ़ना या खेलना। मुझे क्रिकेट से दिलचस्पी नही थी सो या तो मैं कोर्स की किताबें पढता था या कुछ ड्राइंग बनता या कहानियों की किताबों में मशगूल रहता था।
तब सब काम अपनी मर्ज़ी से करता था और अब काम ज़िन्दगी के इशारे पे करता हूँ। ग़ुलाम हूँ ज़िन्दगी का। ज़िन्दगी के ऐश ओ आराइश और ज़िम्मेदारियों ने इतना घेरलिया है की उसकी भरपाई के लिए सिर्फ पैसा पैसा बस यहीं देखता हूँ और कुछ नज़र नही आता। सिर्फ झूठी और खोखली शान के लिए जीता हूँ। और इसमें कोई शक नही की इस ज़िन्दगी के आपा धापी में इतना उलझ गया हूँ की आख़िरत की ज़िन्दगी के तैयारी में कोताही हो जाती है।