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Monday, 7 August 2017

پرانی یادیں

کل بیٹھے بیٹھے جی مے آیا کی ایک پرانے دوست سے مل آؤں بس  جمہ کی  نماز کے بعد  سیدھا انکے گھر گیا مگر وہ گھر پہ موجود نہی تھے  دریافت کرنے پہ معلوم ہوا کے صاحب اگلے ہفتے وطن اے عزیز کو جا رہیں ہیں اسلیے کچھ خریداری کے  لئے بازار گئے ہیں میں وہیں بیٹھ کر انکا انتظار کرنے لگا  . تھوڑی  دیر باد صاحب بازار  سے واپس آگے  ہم دونو مے بات چیت ہونے لگی  تبھی میری نظر انکے داڑھی پرگئی جو بالکل چھوٹی ہو گی تھی اور نیا رنگ بھی چڑھا ہوا تھا . میں اپنی مسکراہٹ  روک نہ پایا . دوست تھودا شرمندہ سا محسوس کرنے لگا کہنے لگا ,مینے چھوٹا کرنے کو نہ کہا تھا بد بخت نے اسے کچھ  زیادہ ہی چھوٹا کردیا . مینے کہا کوئی بات نہی اکثر ایسا ہو جاتا ہے . پھر کہنے لگا اسپے نَیے رنگ کا کوئی مطلب نہ نکالنا  دوست یہ صرف کچھ ذاتی خیالات کا نتیجہ ہے کے مینے اپنے داڑھی کو رنگوا لیا ہے نہیں تو  مجھے کوئی  خاص شوق نہی ہے نوجوان بننے کا.   نوجوانی کیا ہے کیا ہے, خوبصورتی کیا ہے ,کون سی  ایسی آنکھ  ہے جو نہی بہہ جاییگی ایک دن وو کونسی یجوانی  ہے جو باقی رہیگی یا وہ کونسا انسان ہے جو مٹی  مے نہ ملیگا مگر دنیا بھی ایک الگ شہ ہے سب کچھ جانتے ہوےبھی دکھاوا کرنا پڑتا ہے اپنے لئے نہ سہی تو کمسے کم بچوں کے لئے یا اپنے شریک حیات کے  لئے .میں  اپنی ہنسی روک نہ پایا اور پھر ہم دونو چائے پینے باہر چلے گئے
                                                                                                                                                               
میں سوچنے لگا کے ایسی بھی کیا مجبوری ہے کی بیگم کے پاسس بن کالا کے نہی جا سکتے . پھر خیال آیا کے چلو اسے یہ پتا چلتا ہے کہ بندا شریف ہے تبھی بیوی کو اتنی  اہمیت دے رہا  ہے . یا پھر اکثر لوگ اپنی  کمزوری کو چھپانے کے لئے اوپر سہ کچھ الگ لبادہ اوڑھ لیتے ہے ، یا پھر وطن اے عزیز  مے اپنے پرانے عزیزوں کا خیال کچھ تبدیلیاں لانے کو مجبور کردیتا ہے. آپ چاہے عمر کے کسی بھی پراو پہ پہنچ جاییں لیکن جوانی کی یادیں بھی کوئی چیز  ہوتی ہے  اور ان یادوں مے کھو کر انسان جوان ہونے کی ناکام کوشش کرتا رہتا ہے 
 بھرحال صورت یہ تھی کی میرا دوست بہت ہی زیادہ خوش تھا . باربار اپنے چھوٹی بیٹی کا ذکر کر رہا تھا اور بتاے جا رہا تھا کہ وہ  کیسے کیسے شرارت کرتی ہے  اور اسکے لئے اسنے  کیا  کیا لیا ہے وغیرہ  وغیرہ.... تبھی انکے فون کی گھنٹی بجی انہونے  مارے خوشی کے فون اسپیکر پی رکھ کے بات کرنے کی کوشش  کی تبھی ادھر سے آواز آی "اسبار اس چڑیل کے گھر تو نہی جاؤگے " .......... دوست نے کہا بیگم آپ فکر نہ کریں میں کی سالوں سے مسلّط آپکا ہی ہوں ، نہی مجھے کوئی فکر نہی ہے بس اگر اس بار ایسی کچھ بھنک بھی  لگی تو اپنے بچچوں کو اپنے ساتھ لیجانا ........فون کاٹ کر ھم  دونو زور زور سے ہنسے لگے . یہ میرے  بچپن کا دوست ہے اور ہم  دودنو  ایک دوسرے کے سارے کہانیوں سے واقف ہیں .                                                                                     

Tuesday, 1 August 2017

अधेड़ उम्र के सपने -1

बन्दर बूढ़ा हो जाये मगर पेड़ पे चढ़ना नहीं भूलता।  ये वो कहावत है जिसको लोग अक्सर उपयोग करते हैं ये साबित करने के लिए की भले ही उनकी उम्र ढल गयी हो मगर जोश अब भी बाक़ी है। हालाँकि जो बात मैं कहने जा रहा हूँ उसमे जोश का नहीं मगर दिल का ज़िंदा होना ज्यादा मायने रखता है।  एक ४५ साल के युवक का अचानक से दिल फिर जाता है और अपने लड़कपन के दिनों में प्रवेश कर जाता है। वैसे तो आशिकी उसने कॉलेज के जमाने में ही छोड़ दी  थी। एक बेहद सूफियाना ज़िन्दगी में प्रवेश कर जाने के २ दशक बाद इनका दिल फिरसे धड़कने लगा था। ये दिल भी पता नहीं आदमी को कब कहा और कैसे जलील कर देता है। शायद दिल के ऊपर  समय का जोर नहीं चलता या वहां कोई घडी नहीं जो ये बता सके की शरीर कमजोर हो चूका है।
बात वदूद चाचा की है। बेचारे शरीर से चौरे कद में नाटे, मझोली साइज की दाढ़ी, आँखों पे चश्मा और सर पे छोटे छोटे बाल। जब अरबिक गाउन में होते हैं सिर्फ उनकी लम्बाई ही उनके आरे आती है नहीं तो शायद वो अरब ही दीखते। इन्हे कुछ दिनों से बहकी बहकी बात करते हुवे देखता हूँ। कहते हैं एक लड़की से मुझे इश्क़ सा होने लगा है।  वैसे इश्क़ हुवा है या नहीं ये उन्हें भी कन्फर्म नहीं है। उसकी बातें करते रहना आँख बंद होते ही उसका चेहरा दिखने लगना दिन भर मोबाइल का टी टी करना जैसे सब आम बात हो गयी है। ये इश्क़ भी अजीब शए हैं। चाहे जिस उम्र में इसकी धमक हो जोश एक सा ही होता है। कहते हैं की चाचा अपने जवानी के दिनों में बहुत आशिक़ मिजाज़ हुवा करते थे।  हर कोई को यही शक था की  ये किनी शादियां करेंगे इसका कोई पता नहीं। मगर जब चाचा अपने पहले शादी के बाद सादा ज़िन्दगी गुजरने लगे थे तो लोगों को इनके जवानी के दिनों की बातों को भूल जाना ही बेहतर समझा था। मगर कौन समझाए उनलोगों को की "बन्दर बूढ़ा हो जाये मगर पेड़ पे चढ़ने की कला कभी  नहीं भूलता"।

चाचा के महबूबा की उम्र यही कोई २२ साल होगी।  वो दफ्तर में इनकी सहायक है। अभी अभी वो  कॉलेज से पढ़के आयी है। उनका नाम गुरलीन कौर है।  वो एक पंजाबन लड़की है।  रंग गेहुआँ, शरबती आंखें, शहद से लबरेज़ जुबान, क़द यही कोई ५ फुट २ इंच।  लेडी फिंगर का नाम शायद इनकी अँगुलियों की वजह से ही पड़ा होगा। लम्बी लम्बी पतली पतली हाथ की उंगुलियों में जैसे कुदरत ने खास नक़्क़ाशी की हुई हो। वदूद चाचा कहते हैं की क़ुदरत जब किसी को हुस्न देता है तो इब्तदा और इन्तहा नहीं देखता।

तब मेरा दफ्तर में दूसरा दिन था। एक ५० साल का इंसान एक २२ साल के लड़की के साथ मेरे रूम में प्रवेश करता है और कहता है वदूद जी ये रहा आपका संसाधन अब आपने इनके साथ मिलकर प्रोजेक्ट को अंजाम तक पहुँचाना है। मैं तो मोहतरमा को देखते ही कैंप उठा था।  दिल ही दिल सोचने लगा  कहीं ये मोहतरमा ही न मेरे लिए एक प्रोजेक्ट बनजाये। क्यूंकि उन्हें देखते ही पता नहीं मुझे क्या होगया था। मानो कॉलेज के दिनों का लड़कपन एक दम से जाग उठा हो।  कह रहा हो अभी कहाँ जी तुमने  जिंदगी जो थके से थके से महसूस करने लगे हो। उठो और जी लो अपनी असल ज़िन्दगी, दिल से  निकलने वालो हर खून के कतरे ने जैसे पुरे जिस्म के जर्र्रे को दिल की चाहत बता दी हो। मैं एक दम भक्क सा हो गया था। और शेख चिल्ली के सपने की तरह भविष्य में अठखेलियां खाने लगा था।

तभी कानो में एक सुरीली आवाज़ गुंजी गुड आफ्टर नून सर।  मैं तो चौंक सा गया था तभी महाशय ने पूछा वदूद जी  आप ठीक तो हैं न ? क्या कहता, बोल्दिया थोड़ा परेशान सा हूँ।  हाज़मा का थोड़ा प्रॉब्लम चल रहा है बेवक्त गैस ने परेशान कर रख्खा है। फिर थोड़ी गुफ्तगू के बाद महाशय चले गए और कह गए की ये लड़की है नयी नयी आई है शहर में आपके घर के करीब ही रहती है हो सके तो फिलहाल के लिए इसे अपने साथ ले जाया करें।  मैंने कहा बिलकुल, मैं अपने कनिष्ठों का बहुत ख्याल रखता हूँ और इनका भी रखूँगा। आप फ़िक्र न करें।

मोहतरमा कौर को उनका सीट बता कर मैं अपने केबिन में वापिस आगया। मगर मुझसे मेरा चैन छीन गया था अपने केबिन के पारदर्शी परदे से उसे एक टक देखता ही रहा जब तक के मेरे फ़ोन पे एक हरकत न हुई। बात करने के बाद फ़ोन रख्खा और फिर वही टक टकी, मगर इसबार इससे पहले की  कुछ समझ पता की मेरा हाथ टेबल पे पड़े कॉल बेल पे चला गया और एक दम से मेरा चपरासी अंदर आया और पूछा, क्या लाऊँ सर?

मेरे मुँह से बेसाख्ता निकल गया वो नयी वाली लड़की ......... यानि उस नयी वाली लड़की को बुलाओ। उनके अंदर आते ही जैसे मेरे कमरे में रात रानी फूल की खुसबू फ़ैल गयी थी और जैसे आँखें कह रहीं थीं हैं हिम्मत तो डूब कर गहराई मालूम करलो। श्रीमती कौर से मैं बातें करने लगा बहुत साडी बातें होने लगी क्या क्या बात हुई ये मुझे भी याद नहीं क्युकी वो आवाज़ सिर्फ मेरे लबो से निकल रही थी मगर मेरा दिल मुझसे कुछ और ही बात कर रहा था। .............. यकीन मानिये ये वो बात नहीं है जो आप समझ रहें हैं मगर जो लोग सच्चा प्यार करते हैं वो जानते हैं की ऐसे मौके पे दिल क्या बात करता है।  शाम हो गयी और मैं घर जाने लगा था बैग उठाया ही था की वो सामने आगयी।  मैं भी चलूँ क्या सर ? ठीक है आजाओ। यकीन मानिये आज तक मैंने अपने गाड़ी के आगे वाले सीट पे  किसी लेडी को नहीं बैठाया था। सिवाए अपने मोहतरमा के जो के कभी कभी ही बैठती थी। मगर उनको बैठे भी अरसा होगया हैं।  अब हम दोनों साथ नहीं रहते उनकी सेहत ठीक नहीं है इसलिए वो पिछले तीन सालों से अपने मायके में रहतीं हैं।
उनके आकर बैठते ही गाड़ी के अंदर एक खुसबू सी फ़ैल गयी। "सेंट ऑफ़ वीमेन" नाम की एक चलचित्र की याद आगयी जिसमे चलचित्र का नायक अँधा होता है मगर वो औरतों के सेंट की महक उस सेंट का ब्रांड बता देता था।

 उसने अपना गोगल/ धुप चश्मा  निकला और अपने शरबती आँखों को पर्दा देदिया। मिस कौर क्या आपको रास्ता मालूम है। जी हाँ सर आप आगे से राइट लेकर सीधा चलें फिर बत्ती से लेफ्ट लेकर नेक्स्ट बत्ती से भी लेफ्ट और सीधा और फिर उलटे हाथ से  ......... बस बस अब थोड़ा धीरे बोलिये इस उम्र में समझने की सलाहियत थोड़ी कम हो जाती है।  क्या सर ? आपकी उम्र उतनी भी नहीं के आप उम्र दुहाई दे रहें हैं। क्या उम्र होगी आपकी अगर दाढ़ी न हो और थोड़ा पेट अंदर हो जाये तो आप अब भी स्टूडेंट लगेंगे। मैंने कहा कोनसे स्टूडेंट प्राइमरी स्कूल के या मिडिल स्कूल के ??..............   चुप्पी  छा गयी , मैंने बात को जारी रखने के लिए आगे मुँह खोला। अब ये मत कहना की हाफ पैंट पहन लूँ तो प्राइमरी का और फुल पेंट में मिडिल का !
हलकी हंसी के साथ जोरदार कहकहे फुट गए, तब मैंने पहली बार उसे हँसते हुवे देखा था। ठीक इंद्रधनुष की तरह चेहरा सतरंगी सा हो गया था। गालो का बाहर की तरफ उभर आना और ठुड्ढी पे एक तोदरता का निशान मानो मैंने दुनिया का सातवा अजूबा देख लिया था।  और कहकहे की आवाज़ जैसे मानो दो पहाड़ो से निकलने वाले झरने के कहकहे हों।
उसे छोड़ने के बाद गाना गाता हुवा मैं घर आगया।  ये गाना कोई फ़िल्मी गाना नहीं था मगर मेरे अपने अंदाज़ हैं जो सिर्फ कुछ लोगों को मालूम हैं।.........................................................आगे की कहानी दूसरे भाग में पढ़िए।




Saturday, 29 July 2017

मोह दुनिया की भुला पाओ तो कोई बात बने।।

खा के चोट जो सब्र कर पाओ तो कोई बात बने
रुस्वा हो के भी पैमाना न छलकाओ तो कोई बात बने।।

ये मुकद्दर था मेरा जो कभी मैं तुमने मिला था
मिलके सदा साथ रह पाओ तो कोई बात बने।

गैरों में उलझ के कितने बदल जाते हैं लोग
उलझ के फिर संभल पाओ तो कोई बात बने।।

मालिक ऐ हक़ से है मेरा इश्क़ मेरे दोस्त
गर मालिक से दिल लगा पाओ तो कोई बात बने।।

शर्फू मेरे दोस्त तू चल कहीं दूर वीराने में
मोह दुनिया की भुला पाओ तो कोई बात बने।। 

Tuesday, 25 July 2017

एन. आर. आई. डायरी -3

दफ्तर पहुँचते ही मेरी नज़र असलम चाचा पे पड़ी। उन्हें देख कर मैं थोड़ा ठिठक सा गया। असलम चाचा आज हर रोज़ की तरह ऊर्जा वान नहीं लग रहे थे। चेहरे पे एक उदासी थी। मैंने पूछ सब ठीक तो है न।  चाचा ने कहाँ हां सब ठीक है।  मगर मुझे इत्मीनान नहीं हुवा मैंने पुरे दिन उनसे पूछने की कोशिश की मगर कोई बात निकल कर सामने नहीं आयी और पूरा दिन निकल गया। उनका चेहरा  और उनकी उदासी मुझे बहुत खटकती रही फिर अगले दिन वही माजरा रहा।  मगर आज मैंने  ठान लिया था जो हो आज उनके मुँह से बात निकलवा के ही रहूँगा।  उनको लंच के लिए बाहर ले गया।  बहुत तरह की बात हुई फिर वो बातों बातों में भावुक हो गए और अपने उदासी की वजह बताने लगे।
असलम चाचा पिछले 24 वर्षो से विदेश में हैं। अपनी शादी के 2 साल बाद उन्होंने घर छोरदिया था। जब उनका लड़का केवल 3 महीने का था। आज वो क़रीब 23 साल का है।
इसने मुझे 9 साल के उम्र से ही परेशान करना शुरू करदिया था। जब ये स्कूल में पढता था तभी से इसकी ऐसी ही शरारत है।  इसने अपने क्लास को दो भागों में बाँट रख्खा था।  और हमेशा से ही गैंग वॉर जैसा माहोल में रहता था। एक दूसरे गैंग के लोग जहाँ  मिलते एक दूसरे की मार पिटाई शुरू करदेते। अगर आमने सामने हो गए तो आस पास वाले की भी खैर नहीं होती थी। ये बच्चों का गैंग वॉर वहीँ तक सिमित नहीं रहा धीरे धीरे ये दो मोहल्ले के झगड़ा जैसा होगया।  और इसमें मोहल्ले के  बेकसूर लोग पीटने लगे  क्यूंकि कमाने खाने वाले बेचारे गरीब लोग कहाँ इतना तैयार होकर निकलते हैं की वो किसी का सामना कर सकें।
 कल मेरे पत्नी  के साथ जब मेरा बेटा जा रहा था तो गैंग के कुछ लोग मिल गए और उन्होंने कुटाई शुरू करदी।  बचाने की कोशिश करती हुई मेरी पत्नी भी जख्मी हो  गयी। सर में काफी चोट है। इस्तिथि तो खतरे से बाहर है।  मगर ये कबतक चलता रहेगा।  इसका कोई अंत है या युहीं जो जहाँ मिलेगा एक दूसरे की इज़्ज़त उतरता रहेगा।  बहुत टूट सा गया हूँ मेहनत करके दो जून की रोटी जुटाता हूँ और बच्चे हैं की समझने को तैयार नहीं हैं।  क्या उन बच्चों को भी सम्झाने वाला नहीं है क्या वो बच्चे भी ऐसे ही बिना अभिभावक के हैं ।
  किसी न किसी को आगे आना होगा। ये सब बंद करना होगा। क्या ज़िन्दगी केवल इन्ही कामो के लिए मिला है। सिर्फ एक दूसरे की इज़्ज़त उतारते हुवे गँवा दे। अगर लड़ना ही है तो जिसकी जिससे दुश्मनी वो आमने सामने बैठके लड़ ले। बेचारे गरीब और निर्दोष को इसमें शामिल करके क्यों किसी की ज़िन्दगी खराब की जाये। एक निर्दोष को जब आप एक बार पिटोगे तो क्या समझते हो शरीफ बना बैठा रहेगा वो भी गैंग की उन्ही लोगों की तरह अपना बदला लेना चाहेगा तरह तरह की की शाजिश में शामिल होगा और इस तरह से एक शरीफ और निर्दोष भी एक क्रूर व्यक्ति  बन जायेगा। मगर कौन आगे आएगा इन सब में मध्यस्ता कराने को ?
शायद अभी और ज़िल्लत बाक़ी तभी अल्लाह किसी को अकाल देगा या कोई फरिश्ता आकर इनके लिए दुआ करेगा। 

Tuesday, 18 July 2017

एन. आर. आई डायरी -2 (18.07.2017)

नहीं नहीं भाई ऐसा न बोलो। ये सब बात बिलकुल गलत है।  क्या भला कोई अपने भाई को गली दे सकता है क्या। तू तो मेरे भाई जैसा है। इतनी सफाई देते देते ही हाथों में डंडा लिए कई लोग वहां आगये और मेरी धुलाई करदी। अब जरा बताओ मेरी क्या गलती थी।
बात इतनी सी थी के ३ सालो बाद जब मैं अपने गांव गया था तो कुछ लोगों  ने बताया की फ्ला आदमी मेरे ग़ायबाने में मेरे पिता  श्री को उल्टा सीधा बोलते तथा परेशान करते  है। बस इतने पे मेरा खून खोल उठा और मैंने भी चुनौती  भरे स्वर में दो तीन गालियां देदी। देता भी क्यों न एक गोस्त पोस्त का इंसान   हूँ मुझे भी गुस्सा आता है और करदिया था गुस्से का इज़हार मगर मुझे क्या पता की यहाँ बात कुछ और थी। मुझे जो बताया गया था वो बिलकुल भी सच नहीं था असल मक़सद तो ये था की किसी तरह लड़ाई झगड़े में उलझा दिया जाऊ।
कभी कभी आपका सीधापन भी आपके आरे आ जाता है।  ज्यादा अच्छा होना भी आपके खिलाफ जा सकता है। पिछली बार जब मैं घर आया था तब माँ  के लाख कहने पे भी अपने बड़े बाबा के घर चला गया था। सोचा था की दो दिन के लिए आया हूँ क्या लड़ाई झगड़ा करूँ।  उसी का खामयाजा था की इस बार दाँत तुड़वाना पड़ा है।  असल ये लड़ाई इस बात की थी के मैं दो वक्त की रोटी खाने लगा था।  मेरे बच्चे  ईद पे प्रेमचंद के हामिद जैसे नहीं रहे थे। उन्हें भी अपना बचपन जीने का हक़ मिल रहा था।
आखिर कोई किसी की तरक़्क़ी से क्यों जलने लगता है। क्या कोई किसी के हिस्से का लेकर अमीर बन जाता है या किसी के अमीर बनने से कोई गरीब हो जाता है।
मेरी उम्र  ६७ साल है और जब मैं अपना बचपना याद करता हूँ तो सिहम सा जाता जाता हूँ। आज भी कभी बारिश होती है तो उन यादों में खो जाता हूँ जो ५दसक पहले बीत चुके है।
बरसात की अँधेरी रात में बिजली की चमक और पानी की बूंदो से नींद खुल जाती थी तो ये एहसास होता था की  हमारा साया तो सिर्फ आसमान ही है। पिता श्री की कम तनख्वाह और माता श्री के इलाज के जद्दो जहद में इतने पैसे कहाँ बचते थे की घरके छप्पर की मरम्मत कराया जाये। रात भर अलग अलग जगहों पे  बर्तन लगा कर आसमान से गिरते पानी को घरमे फैलने से रोकते रहना परता था।

सरफ़राज़ जी मैं अपनी ज़िन्दगी जीना चाहता हूँ।  मैं किसी से लड़ना नहीं चाहता।  न ही मैं किसी के बात का कोई मतलब निकलता हूँ।  किसी के तंज को अनसुना करना मेरी आदत सी हो गयी है।
मगर शायद अब और नहीं और और बर्दास्त नहीं हो पा रहा था और इसलिए मैंने गांव छोड़ने का फैसला किया। अब और न पूछिए की ये छोटी सी बात है। ये बात होगी छोटी आपके लिए मगर मेरे लिए मेरे बच्चे सबसे ऊपर हैं। मैं नहीं चाहता था की उनको कोई ताना दें या बे वजह परेशान करें। उन्हें अपना बचपन जीने का पूरा अधिकार है।

अजाईये अब खाना खा लेते हैं बहुत दिनों बाद मिले हैं और ऊपर से सारा वक्त फालतू की बातों में ही ख़तम हो गया।


  

एन. आर. आई डायरी -1 (17.07.2017)

लो भईया आ गए। अब भईया ही बताएंगे। क्या हुवा भाई ! भईया क्या बताएंगे। नहीं ये लोग ये बात कर रहा है  की हवाई जहाज़ पर बैठने के लिए वो ब्लू वाला किताब का होना जरुरी है। नहीं तो ढुक्ने ही नहीं देगा भीतर। उ खाकी वर्दी वाला पुलिस गेट पर रोक लेगा। क्या कहते हैं भैया सही है की नहीं।
हाँ भाई हाँ ई बात सही है। मगर तुम्हारे ई भईया को उ किताब का जरुरत नहीं परता।
मगर कैसे भैया ? उ का है की हमारी पहचान हो गयी है वर्दी वाला से। हर बार आते जाते १००, ५०० का नोट उसको फेंक देते थे अब साला पहचान गया है की हम दुबई रहता हूँ। कहता है हमको भी ले चलो दुबई साला यहाँ दरबानी करते करते बोर हो गया हूँ। अब बताओ न इसको कौन समझाए दुबई जाने के लिए कितना पापड़ बेलना परता है।  जाने में थोड़ा दिक्कत भी होता है भाई। वो साला नंगा करके चैक करता है।  पीछे ऐसे देखता है टोरच जला के जैसे किसी ने पक्की खबर दी हो की बीमारी यहीं है। भाई वो भी कोई जगह है चेक करने की।
तभी लड्डू भाई वहां आगये और कहा कब आये ? ऐसे कहानी से पेट नहीं भरता आये हो, कुछ खर्चा करो तब आएगा मजा कहानी सुनने में। नहीं भाई मैं तो चला बहुत दिनों बाद आया हूँ थोड़ा वक्त बच्चों के साथ बिताऊंगा आपलोगों को पार्टी फिर कभी देदूंगा।
घर पंहुचा तो माँ दरवाजे पे इंतजार कर रही थी , देखते ही बोल परी इतना दिन पर आया है थोड़ा तो घरमे पाऊँ जमा आज ही आया है आज ही गांव के सैर सपाटे शुरू हो गए ? शादी को दो साल हो गये अभी तक घरमे किलकारी नहीं गुजी है। ये सब दुनियादारी छोर तू कल ही जा कर डॉक्टर से मिल। मैं सीधा अंदर चला गया। सोचने लगा ये घरवालों को भी इतनी जल्दी होती है की कोई हद नहीं।
खाना खाया और सोने चला गया। इसी बीच माँ एक बार और आयी और याद दिला गयी की शादी के दो साल हो गए है।
वर्षो के बाद जब इंसान घर जाता है तो ये समझ नहीं आता है की वो क्या करे ? दुश्मनो से दुश्मनी निभाए या दोस्तों के बीच बैठा रहे या घरवाले के ही साथ रहे ? मगर ये उलझन सिर्फ पंद्रह दिन चलती है उसके बाद समझ आजाता है की क्या करना है।  क्यूंकि १५ दिन में ही आपके निकट रह रहे लोगों का असली चेहरा सामने आजाता है, आखिर बनावटी सवभाव कब तक चले। सबसे पहले अपने घरवाले ही वापस जाने का दिन गिनने लगते हैं।  क्यूंकि १५ दिन तो अच्छा लगता है उसके बाद उन्हें ऐसा महसूस होने लगता है  जैसे उनकी आज़ादी में कोई सेंध लगा रहा है। यकीन मानिये ये एक करवा सच है।

Thursday, 13 July 2017

दूसरी शादी / Second Marriage

६ जुलाई २०१७ की सुबह जब दिल्ली से जयपुर के लिए शताब्दी एक्सप्रेस चली तो उसमे में भी एक पैसेंजर की हैसियत से अपने बच्चों के साथ सवार था। टोटल ४ बुकिंग थी हमारी ३ एक साथ और एक अलग, सब लोगों को बैठा कर मैं अलग वाले सीट पे जा बैठा। सुबह जल्दी उठ गया था इसलिए थोड़ी देर बाद आँख लग गयीं। आँख खुली तो अलवर आ चूका था और एक  वृद्ध आदमी मेरे साथ आकर बैठे थे, उनकी उम्र यही कोई ६०-६५ की रही होगी। थोड़ी देर चुप रहने के बाद मैंने उनसे कुछ बात करने की सोची मगर वो शायद तैयार नहीं थे। थोड़ी और कोशिश के बाद उनसे कुछ बात चीत शुरू हुई और बातो का  सिलसिला शुरू होगया।
पता ये चला के वो अंदर से बहुत टूटे हुवे हैं। उनके दो बेटे  हैं  एवं उनकी दो शादियां  है।  दोनों बेटा अलग अलग देशो में रहते हैं।  एक ने ईसाई लड़की से शादी कर्ली है और दूसरे ने मुस्लिम से। उनका दुःख ये था की वो उनके बच्चे उनके साथ नहीं रहते थे और उनकी दूसरी पत्नी जो उनकी अस्सिटेंट हुवा करती थी वो अब उन्हें उतना भाव नहीं देती थी। दूसरी शादी उन्होंने ५५ साल की उम्र की थी अपने सेक्रेटरी के साथ और ये उनका प्रेम विवाह था। दूसरी पत्नी से शादी किये अभी केवल ८ साल हुवे थे । शादी के वक्त दूसरी पत्नी की उम्र केवल २६ साल थी। पूछने पे कहने लगे की दूसरी शादी पहली पत्नी के भाव न देने पे की थी। क्यूंकि इनके ५३ वे  साल में इनके पहले पत्नी की उम्र ४० से ज्यादा हो गयी थी और वो धार्मिक कार्यों में ज्यादा दिलचस्पी लेने लगी थी। जो की इनको पसंद नहीं था। कह रहे थे की मेरी दूसरी शादी मेरे लिए एक भूल थी , इंसान अपने पल भर के  ख़्वाहिशात के चक्कर में अस्तित्वों तथा अंजाम को भूल जाता है। शायद मेरे बच्चे भी इसलिए मुझसे दूर चले गए। वो अपने मा यानि मेरी पहली पत्नी के साथ लंदन में रहते हैं। पहले कभी कभार बात होती थी मगर अब न तो वो मेरा फ़ोन उठाते और न ही कभी फ़ोन करते है। ज़िन्दगी के एक अजीब पराओ से गुज़र रहाँ हूँ। अपना अस्तित्व और अंजाम भूल के ये सब भूल करलिया। बेटे जब इंसान बूढ़ा और बेसहारा होने लगता है तो उसको अपने बच्चो की एक मुसकान उसके दिलों में खून  बनकर दौरता हैं। एक फ़ोन कॉल जैसे एक एनर्जी ड्रिंक का काम करता है। मगर अब इनसब बातों का क्या फायदा।

 मैंने पूछा आपका प्रेम विवाह वो भी ५५ की उम्र में कैसे हुवा ? कहने लगे ये सब बस हो जाता है। इसे किया नहीं जाता नहीं तो २५ साल की लड़की एक ५५ साल के बूढ़े को कैसे चाहने लगती? उन्होंने कहा की मैं दिल्ली में बिजली विभाग में डिपुटी जनरल मैनेजर था जब वो मेरे साथ एक सेक्रेटरी की हैसियत से आयी थी।  पत्नी से मिली निराशा के अँधेरे कुवें में उसकी आँखों मेरे लिए एक किरण की काम करगयी वो भी मेरा बहुत ख्याल रखने लगी फिर सिलसिला शुरू हुवा और हम एक दूसरे के क़रीब आने लगे।  उम्र में अंतर के कारण किसी को शक न करने पर बाध्ये कर रख्खा था। इसमें कोई शक नहीं है की एक आशिक दुनिया से बेगाना तथा  फितना से दूर होता है। दुनिया में मैं सबकुछ भूल कर सिर्फ अपने बुढ़ापे के प्यार के ख्वाबों ख्यालों में उलझा रहता था। जो छोटे मोठे मन मुटाऊ तथा झगड़े हुवा करते थे वो सब बंद हो गए पत्नी अपने सत्संग में खुश रहने लगी और मैं और मैं संग संग खुश रहने लगा। मेरी प्रेमिका मेरी दूसरी बीवी को भी अपने घरमे अपने शराबी पिता से कोई प्यार नहीं मिल रहा था बीमार माँ और पिता की रोज़ रोज़ की चिक चिक से परेशान मेरे इर्द गिर्द रहने में सहज महसूस करती थी।
फिर एक दिन मेरे प्रेमिका का बाप ऑफिस में आ धमका और और बहुत कहा सुनी हुई। मगर वहां वो अपनी बेटी के तेवर देखकर जाते जाते ये कह गया की ये मेरी बला जो अपने सर लेने की कोशिश कर रहे हो पछताओगे एक दिन। मगर कहाँ, जब दो दिल मिल रहे होते हैं तो वो अंजाम से बेफिक्र होते हैं। इस के बाद अपने प्रेमिका के दबाओ बनाने पे मैंने एक दिन सूर्य नारायण मंदिर में उससे शादी करली। उससे शादी करने की एक सबसे बड़ी वजह ये भी थी की वो पिछड़ी जाती से थी और ब्राह्मण का पिछड़ी जाती से शादी जैसे एक जुर्म माना जाता है। ये हमारे समाज के मान्सिक्ताओ को दिखाता है। एक चोर डाकू बलात्कारी से कहीं अधिक जलालत वाला काम माना जाता है दूसरी शादी और ऊपर से अगर पिछड़ी जाती से किया तो क्या कहने हैं। बहर हाल मैंने इसे तोड़ने की ठानी थी और तोड़ डाला।  शादी से पहले मैंने अपने जायदाद की आंकलन कर लिया था की अगर मैं दो चार साल में भी मर जाऊं तो मेरी दोनों पत्नियां अपने हिस्से का लेकर खुश रह सकती हैं की नहीं।  बेटो की परवाह पहले भी नहीं थी। दूसरी पत्नी को दूसरे घरमे शिफ्ट करदिया और उसके साथ रहने लगा। और पहली पत्नी को बता दिया की मेरा ट्रांसफर हो गया दूसरे शहर चूँकि मैं सेंट्रल गोवेर्मेंट का कर्मचारी था और डेपुटेशन पे दिल्ली  बिजली विभाग में आया था इसलिए किसी को शक भी नहीं हुवा की एक स्टेट कर्मचारी का ट्रांसफर दिल्ली से बाहर कैसे  हो गया। पकड़ा मैं तब गया जब एक दिन किसी ने मेरी पत्नी को बताया की साहब को मैंने राजीव चौक पे देखा है। वो शायद उस दिन बहुत खुश रही होगी,  उसे लगा शायद मैं ऑफिसियल काम से दिल्ली आया हूँगा और आज रात उसे सरप्राइज दूंगा। मगर जब देर रात तक मैं घर नहीं पहुंचा तो उसका कॉल आया मगर मैंने सरे कॉल मिस करदिये और साइलेंट करके सो गया। घबराई हुई मासूम पत्नी पुलिस स्टेशन जा पहुंची और मेर गुमशदगी की रिपोर्ट कर आयी और साथ में अपने मामा को कॉल लगा दिया जो की दिल्ली पुलिस में इंस्पेक्टर थे।  पुलिस ने उनके मामा के पैरवी पे तुरंत करवाई की और फ़ोन का लोकेशन ट्रेस किया। फ़ोन का लोकेशन मिलने पे मेरी पत्नी थोड़ी शांत हुई बताया की वो हमारा दूसरा घर जो की खली ही रहता है। शायद दारू पिने की वजह से वो कल रात मेरे पास न आकर वहां चले गए होंगे। मैं उनसे मिल लुंगी आप केस क्लोज कर दीजिये।
दूसरी सुबह जब मैंने मलती आँखों दरवाजा खोला तो विस्वास नहीं हुवा मेरा भांडा फुट चूका है। उसके बाद क्या हुवा तुम सोच सकते हो। और उस दिन के बाद मैं अपनी बीवी से केवल अदालत में ही मिला हूँ। उसके बाद हमारी ज़िन्दगी बहुत खुश हाल होगयी हम दिल्ली में कहीं भी बेधड़क एक साथ घूमने लगे। फिर ६० साल के बाद मेरा रिटायरमेंट हो गया और मैं कम्प्लीटली फ्री हो चूका था। अच्छी खासी रिटायरमेंट बेनिफिट लेकर पूरा इंडिया तथा विदेश की शेर की मगर अब मेरी दूसरी पत्नी चिंतित रहने लगी थी क्यूंकि हमें कोई औलाद नहीं था और इसकी वजह डॉक्टर ने मुझे बताय था। फिर हमदोनो के बीच कहा सुनी होने लगी थी क्यूंकि बुढ़ापे की झंझलाहट मेरे अंदर प्रवेश कर चूका था और औलाद न होने की गम में वो भी चिरचिरी हो गयी थी। हालाँकि पिछले महीने हमें एक औलाद हुई हैं मगर अब उसी औलाद पे हमारा झगड़ा है। 

Tuesday, 11 July 2017

रिस्तेदारी-एक जरुरत या बोझ !

तुम कहते हो सोचो मत मगर क्यों न सोचूं न सोचा तभी तो ये हाल हुवा है। बुज़ुर्गों से सुना था रिस्तेदारी में दिमाग नहीं दिल लगाना चाहिए। मगर शायद अब वो वक्त नहीं रहा की दिल लगाया जाये कम्युनिकेशन के इस आधुनिक दौर में झूठ ने सच का मुँह काला कर दिया है।  लोग एक दूसरे से खुले आम झूठ बोलने लगे है। पहले लोग निस्वार्थ सेवा करने में विस्वास रखते थे अब निस्वार्थ झूठ बोलने में विश्वास रखने लगे हैं। यकीन मानिये ९० प्रतिशत लोग केवल मजा लेने के लिए झूठ बोलते हैं इससे  उनका कोई जाती फायदा नहीं होता। और इसमें सबसे बड़ा रोले है मोबाइल फ़ोन का , आजकल मोबाइल फ़ोन का घरेलु उपयोग में  ९० प्रतिशत इस्तेमाल झगड़ा लगाने और झगड़ा करने के लिए होता है।
आजकल वाक़ई रिस्तेदारी को दिमाग से खेलने की जरुरत आगयी है। वजह ये हैं की दिलसे सोचने पे आप भावनाओ में होते हैं और आज भावनाओ की कोई जगह नहीं बची है समाज में। आप जब दिलसे सोचते हो तब अपने भविष्ये की परवाह नहीं करते और नहीं किसी के सोचने की परवाह करते हैं की लोग क्या सोचेंगे। लोगों को कैसे मिलना है उसने क्या बात करना है अपनी सीमा कहाँ तक रखनी है ये बहुत ही जटिल मुद्दा है जो की हमें कहीं बताया ही नहीं जाता। तभी वसीम बरेलवी का एक शेर है।

नए उम्र की ख़ुदमुख़्तारियों को कैसे समझूँ। 
कहाँ बचके निकलना है कहाँ जाना जरुरी है।।

इंसान के ज़िन्दगी में आधे से ज्यादा परिशानी का कारन आपसी रिश्तों का जटिल होना है। इल्म इ गैब या पि.के फिल्म के उस दृश्ये के तरह जिसमे आमिर खान किसी का हाथ पकड़ कर उसके दिमाग में चलने वाली चीज़ जान जाता। ऐसी ताक़त इंसान को बक्श दी जाती तो शयेद इस परेशानी से इंसान बच जाता। किसी के बहकावे में न आता और अगले के दिमाग के सही बात को जान जाता।
कितना दुःख होता है जब आपके बारे में कोई गलत बात फैला दी जाये या कोई गलत बोल जाये और अगले को यकीन हो जाये। क्या ऐसा करने वाले के पास अपने बाल बच्चे नहीं होते, क्या उनके ज़िन्दगी में ऐसा कभी नहीं होता की उनकी कोई बात फैलाया हो और उन्हें दुःख हुवा हो। क्या ऐसे लोगों का दिल पथ्तर का बना होता है ? या फिर वो किसी खास तरह के रोग से पीड़ित होते हैं?

अल्लाह हम सबको हिदायत दे इस चार दिन की ज़िन्दगी में किसी इंसान का दिल दुःखा कर किसी को क्या मिलेगा।


Thursday, 22 June 2017

याद है अब भी बाक़ी आपके शहर की

कैसी ठंढी हवा आपके शहर की
है ये रास्ता ज्वा आपके शहर की

मिट्टियों की खसबू मौसमो का मिजाज़
खास है सारी बातें आपके शहर की

रक़ीब हैं जो यहाँ वो भी मेरे दोस्त हैं
ज़िन्दगी है अजीब आपके शहर की

जाता हूँ नहीं अब मैं कई साल से
याद है अब भी बाक़ी आपके शहर की

Saturday, 13 May 2017

सच क्या है !

सच क्या है ! क्या किसी को जलील करना सच है ? मेरे ख्याल से तो नहीं , वो सच क्या सच जिससे किसी का भला न हो बल्कि मजीद नफरत में इज़ाफ़ा हो जाये !
अक्सर लोगों को ये कहते हुवे सुनता हूँ की " मैं सच बोलता हूँ इसलिए ये बात बोल्दिया " और ऐसा कहकर वो कई बार भरी महफ़िल में किसी शख्स के लिए सच के नाम पे घृणा फ़ैलाने वाली बात बोलदेते हैं जिससे फायदा कुछ नहीं होता मगर तनाओ और बढ़ जाता है। ऐसा करने वाले को ये ज्ञात हो की इसदुनिया में सबके पास एक दूसरे के लिए सच का जखीरा है। हर किसी का कोई न कोई माज़ी होता और आज के दौर में लोग सच कम और माज़ी ज्यादा कहते हैं।

कल एक सज्जन से बात हुई वो बहुत उदास थे पूछने पे कहने लगे की देखिये आज अपने भतीजी के घर गया था।  तीसरी मंज़िल पे चढ़ते हुवे साँस फूल गया, दरवाज़ा खुलते ही बेसुध होकर सोफे पे गिर पड़ा। थोड़ी देर में दामाद जी आये और पूछने लगे अंकल क्या हुवा आप ठीक तो हैं। मैंने कहाँ हाँ ठीक हूँ,  थोड़ा सीढिया ज्यादा चढ़ गया इसलिए साँस फूल रहा है। इतने में मुँह बनाते हुवे भतीजी कहने लगी की चचा के पाओं में चप्पल भी नहीं हुवा करता था और गांव से १२ किलोमीटर दूर मुकदमा लड़ने मुजफ्फरपुर पैदल ही आते थे और आज २०/३० सीढिया चढ़ कर साँस फूल जाता है !!

उनके भतीजी को फ़ोन किया, मोहतरमा का जवाब था की "मैंने झूठ क्या कहा, जो सच था वही तो कहा"

Tuesday, 11 April 2017

समय का आभाव

समय का आभाव आपका जीवन कितना मुश्किल या आसान करदेता है इसका मूल्याङ्कन आप अपने परिचित तथा परिजनों  के मिजाज़ से ही कर सकते हैं। ये निर्भर करता है उनपे की वो आपके समय के आभाव को कैसे देखते हैं। क्या उन्हें इसका अंदजा है की  समय का गुज़रना सदैव सबके लिए एक समान नहीं होता। जीवन के बदलते पड़ाव में समय के प्रबंधन का बहुत बड़ा दबाओ होता है।

नए उम्र के खुद मुख्तारियों को कैसे समझूँ
कहाँ जाना जरुरी है कहाँ से बच निकलना है

                                      वसीम बरेलवी 

Wednesday, 15 March 2017

एक प्रिय मित्र का दुःख भरा सन्देश।

एक प्रिय मित्र का दुःख भरा सन्देश।
डिग्री, सर्टिफिकेट, रुतबा, मान सम्मान सब धरा का धरा रह जाता है जब पत्नी जी का मैसेज आता है की दफ्तर से आते हुवे सब्ज़ी लेते आना और बालक का पम्पेरस भी ख़तम हो गया है लगे हाथ वो भी ले लेना। अब उन्हें कौन समझाए की अभी आधे घंटे पहले दफ्तर में मैं ऐसे भूँक रहा था जैसे की प्रधान मंत्री हूँ और पुरे दफ्तर का बोझ मेरे ही सर है। मैं ही अकेला आदमी हूँ जो काम करता हुँ।
और ये सब गुमान एक ही सेकंड में चकना चूर करदिया जाता है। बड़ी अजीब समस्या है पुरुष जाती का हर पल अपने आपको समंजन करते रहना पड़ता है।

और दूसरी तरफ कल ही एक सज्जन का सन्देश आया की उनकी शादी की तारिख तय हो गयी है।  अब मुझे समझ नही आरहा है की उन्हें बधाई दूँ या चेतावनी।

Friday, 10 March 2017

२१ वीं सदी का नौजवान !

हाँ मैं २१ वीं सदी का नौजवान हूँ। जब मैंने आँखें खोली तो कंप्यूटर जनम ले चूका था। दफ्तर में कैलकुलेटर को कप्यूटर से रिप्लेस किया जाने लगा था। हमारा दाखिला ऐसे स्कूल में कराया गया जहाँ कंप्यूटर की भी शिक्षा दी जाती थी। मैं कभी भी किसी भी मुद्दे पे बहस कर सकता हूँ। हर विषय पे मेरा जवाब तैयार रहता है।  हमने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को जवान होते देखा है। सोशल मीडिया भी हमारे सामने ही जन्मा है। हमने शिक्षक को शिक्षक से व्यापारी बनते देखा है। बिन सोचे रात रात भर पढाई इसलिए की के मेरे पिता के कुछ सपने थे। मेरा पढ़ने का कभी मन न था मैं तो आर्टिस्ट बनना चाहता था। हमारे हाथ से खिलौना छीन के किताबों का बोझ ऐसे लाद दिया गया जैसे मेरा जीवन किताबो का बोझ उठाने के लिए ही हुवा था या फिर इंसानी जिंदगी के बढ़ते चाहत तथा सपनो में खो जाने के लिए हुवा है। मेरा बड़ा भाई पड़ने में बहुत तेज़ था उसे पढ़ने का शौक़ था और मुझे आर्टिस्ट बनने का शौक़ था।  मेरे पिता जी को हम दोनों भाइयों में एक बड़ा अफसर ही दीखता था। मगर क्या वाक़ई पढाई ही एक प्रतिभा है जिससे किसी को तौला जा सकता है , शायद नही !
२१ वी सदी का होने के नाते मैंने और भी कई बदलाव देखे जिसमे सबसे एहम था लड़कियों का घरसे बाहर निकलना अपने मन की दुनिया तलाशना उनका स्कूल जाना आगे पढ़ना और बढ़ना मगर क्या ये सब उतना आसान रहा होगा जितना की बोलना और लिखना है , नही! मेरे दोस्त का कहना है की उसके मोहल्ले की एक लड़की ने इस दिवार को बखूबी तोडा है उसके घरमे कोई पढ़ा लिखा न होने के बावजूद उसने अपने दम पे हायर एजुकेशन लिया है। शुरू शुरू में लोगों ने उसके बारे में क्या नही कहा जिसके जी में जो आता था वो बोलता था। मगर शायद इस दुनिया में आगे वही बढ़ते हैं जो लोगो की परवाह नही करते।

पुराने लोग कहते हैं की मशीन और मौसम का कोई भरोसा नही होता लेकिन २१वी सदी का होने के नाते मेरा इसपे बिलकुल अलग विचार है। आज के २१ वी सदी में मशीन और मौसम ज्यादा भरोसे मंद हैं कमसे काम उनके बारे  में पता होता है मगर इंसान के बारे कुछ पता नही होता की वो कब और किसलिए आप को धोखा दे देंगे  हर कोई अपने मिशन में मस्त है अपने मिशन के लिए कोई कुछ भी कर सकता है।
हम अपने बड़ो की इज़्ज़त नही करते वजह ये है की बड़ो में वक्त के साथ अपने आप में बदलाओ तो कर लिया मगर किताबें अब भी पुरानी हैं जहाँ तहज़ीब बड़ों से शुरू होता है और इसलिए किताब पढ़ने के बाद बड़ों में वही अक्स लिए घूमता रहा मगर बड़ो में किताबों के उलट आचरण पाया और इस तरह उनसे नफरत हो गयी। मगर अब धीरे धीरे समझ आरहा है किताबो के तहज़ीब असली दुनिया से बिलकुल अलग होते हैं। ७ साल की उम्र में पहले बड़े झूठ से पाला पड़ा जब मेरे पिता ने रेलवे वाले से झूठ कहा की मेरी उम्र ५ साल है। सड़क पार करने के नियम किताब में पढ़े ही थे की दूसरे दिन अख़बार में पढ़ा की किसी गाड़ी वाले में शराब के नशे फुटपाथ पे सोने वाले मजदूरों को कुचल दिया है। अब मेरे पुरे किताब में कहीं ये  नही मिला की क्या कोई शराब के नशे में गाड़ी चल सकता है या नही। वैसे ये तो पढ़ा हुवा था की ये बुडी चीज़ है मगर इसके सेवन  से क्या नुक्सान हो सकता है बहुत जल्दी समझ आगया।

१५ साल होते होते मैं एक कंफ्यूज इंसान हो गया मुझे मेरे गणित के सवाल उतना नही डराते थे जितना की समाज शाश्त्र के सवाल में मैं उलझा रहता था। फिर शायद इसी लिए मैंने १० वी के बाद विज्ञानं पढ़ना पसंद किया या प्राकृति ने मुझे विज्ञानं की तरफ रुझान दे दिया। विज्ञानं में वो विपत्तियां नही थी यहाँ सब कुछ सामने होता था या नही तो नही होता था।

अब बताईये न मुझसे कोई क्या कोई उम्मीद करेगा के मैं समाज को क्या दूंगा जो समाज को समझ ही न स्का। हर बात पे पार्टी पार्टी करना और एक दूसरे को अपना प्रतिद्विन्दी समझने के इलावा कुछ न समझ स्का समाज के बारे में। तहज़ीब के नाम पे तो मेरा सोशल मीडिया का मेरा वाल देख लीजिये। मैं कहाँ जा रहा हूँ इसका पता नही है मगर कहीं जा रहा हूँ। 

इंसानी वहम

कहते हैं  की किसी  को गलत  कहने  से  पहले  उसके  जूते  में  10 क़दम चल के  देख लो, उसके उचक उचक के चलने की वजह उसका गुरुर नही बल्कि शायद जूते में चुभते हुवे कील हो। मगर अफ़सोस के आज के वक़्त में ये थोड़ा मुश्किल है क्योंकि इंसान को हर कुछ की जल्दी होती है।  लोग एक दूसरे के बारे इतना जल्दी जजमेंट दे देते हैं जैसे कहीं जाने की जल्दी है। अपना जजमेंट सुना के ट्रैन पकड़नी है।

लेकिन क्या वाक़ई हम सबको हर चीज़ पे विचार रखना चाहिए ?

इनसब के पीछे असल वजह कुछ और है। असल में हम सब एक तरह के मनोरोग से विकृत हैं जिसमे इंसान की कैफियत ये होती है की वो भीड़ में अपने आपको अकेला समझता है और वो अपने आपको ऐसा महसूस करता है के सब उसे ही देख रहें हैं इसलिए उसका हर मुद्दे पे अपना विचार रखना ऐसे ही जरुरी है जैसे की सांस लेना । अगर विचार नही रख्खा तो पिछड़ा हुवा समझा जायेगा या आउट ऑफ़ मार्किट हो जायेगा और लाइम लाइट से दूर हो जायेगा।

Saturday, 4 March 2017

बाप का दर्द

हर इंसान की अलग अलग कमजोरी होती है। लोग कहते हैं ये बड़ा कठोर है ये कभी नही पिघलता लेकिन मैं ऐसा नही मानता। हर कोई भावुक होता है हर कोई पिघलता है हर कोई में गुस्सा आ सकता है। मगर थोड़ा कम थोड़ा ज्यादा।
इस शुक्रवार मेरी मूलाकात ऐसे ही एक व्यक्ति से हुई जो बहुत कठोर माना जाता है।  मिलते ही चाय का दौर शुरू हुवा दुन्या भर की बातें हुई।  फिर बातों ही बातों में वे कहने लगे मुझे गल्फ में आये हुवे २० साल होने को है।  बी. ऐ  पास करने के बाद जब देश में कोई नौकरी नही मिली तो घर वाले ने सोचा क्यों न शादी करदी जाये शायद शादी के बाद तक़दीर पलट जाये, अधूरे मन से मैंने भी हाँ करदी क्योंकि जब वाल्दैन ज़िद पे उत्तर जातें हैं तो न कहना मुश्किल हो जाता है और उनकी भी अपनी मज़बूरी होती। रिस्तेदार और पडोसी ऐसे पूछने लगते हैं शादी के लिए जैसे  की इंसान की ज़िन्दगी का मक़सद सिर्फ शादी करना ही होता है। मुझे दिल्ली भेजदिया गया और ये खबर फैला दी गयी के मुझे नौकरी मिल गयी है। फिर जल्द ही  रिश्ते आने लगे उनमे से एक को हाँ कर मेरी शादी तये करदी गयी। मैं तो था नाकारा मेरे पास किसी को देने के लिए कुछ नही था यहाँ तक के मैं पत्नी को भी कुछ न दे सका जिसका मुझे जीवन भर अफ़सोस रहेगा। पहली बार जब मैं ससुराल गया तो  मुझसे पूछा गया की आप वापस कब जायेंगे दिल्ली तो मैंने लाज रखने के लिए कह दिया की मेरी छुट्टी बहुत कम दिनों की है और मुझे जल्द जाना होगा नही तो नौकरी चली जाएगी। कुछ दिन इधर उधर करने के बाद मैंने लोगों से कह दिया की मैं जहाँ काम करता था वो दफ्तर बंद हो गया सो अब दूसरी नौकरी ढूंढने के बाद जाऊंगा। अतः मैं जदली का कह कर ६ महीने तक भी अपने परिवार को छोड़कर बाहर न जा स्का और इसके लिए आज भी उस गांव के लोग इस बात की  मिसाल देते हैं और जब भी कोई दामाद वक्त की पाबन्दी और जदबाजी की बात करता है तो वो मुझे याद करते हैं और एक दूसरे की तरफ देख कर मुसकुरा लेते हैं।

वक्त बीतता गया और इसी तरह घरमे एक नन्हा मेहमान भी आगया अब उनका खर्च भी सर चढ़ने लगा काफी मुशक़्क़त की कई तरह के नुस्खे अपनाये मगर नौकरी नही मिली। आधी उम्र इसी तरह बीत गयी लोग तो लोग अब घरवाले भी तरह तरह के ताने देते थे। और दे भी क्यों न हर कोई  पेड़ में फल लगते देखना चाहते हैं।
अंततः एक लिंक के थ्रू मुझे बाहर आने का मौक़ा मिला लोग बहुत खुश हुवे हर किसी के चेहरे पे मुस्कान थी मैं भी खुश था और ख़ुशी ख़ुशी रोज़गार के लिए विदेश चला आया। आज मेरा २४ साल का एक बेटा है और मेरी उम्र ५९ साल है २० साल हो गए विदेश में काम करते हुवे। मगर तब और आज में क्या कुछ बदल गया है सिवाए इसके के मेरे बच्चे तीन वक्त का खाना ढंग से खा लेते हैं और मेरी पत्नी दो बेटी तथा पुत्र के साथ पास के शहर में किराये के मकान में रह कर शहरी जीवन का आनंद ले लेती हैं। एक जमीन लिया हैं मगर खर्च और जीरो बचत की वजह से उसपे घर बनाने का सोच भी नही सकता।  बिटिया भी बड़ी हो रही है। उनके लिए जो दो पालिसी ले रख्खी है वो नाकाफी है। पुत्र ने घरपे बाप का अनुसासन न पाकर समय तथा पैसे दोनों की बर्बादी की है। ऊपर वाला अगर संतान दे तो इज़्ज़तदार दे। बुढ़ापे की लाठी न बने तो कोई बात नही मगर बुढ़ापे में लाठी खिलवाये न!

इतना कहते हुवे उनके आँखों में आंसू आगये पता नही लाठी खिलवाने वाले बात से उनका क्या तात्पर्ये था। मैंने उन्हें चुप कराया और पानी गिलास उनके तरफ बढ़ा दिया पानी पि कर जब वो ठन्डे हुवे तो कहने लगे की बीस साल में मैं सिर्फ ६ बार डेढ़ डेढ़  महीने के लिए घर गया हूँ। मतलब २० साल में मैं १९ साल से भी ज्यादा समय अपनों से दूर रहा हूँ।  क्या ये एक सज़ा से कम है ?
मैंने सब बात को काटते हुवे उनसे अपने मन का सवाल पूछ दिया , आपके बारे में लोग कहते है की आप बहुत कठोर हैं आप के आँखों में आंसू की उम्मीद नही थी मुझे। कहने लगे, इंसान सब कुछ देख सकता है मगर सामने औलाद की बर्बादी नही देख सकता ऐसा होने पे जी चाहता है की अपने उँगलियों से ही अपनी आँखे फोर लूँ।

इस बात के बाद मैं कुछ न कह स्का और दूसरी बात करके लौट  आया क्योंकि औलाद के दर्द का अनुभव मुझे अभी नही है हाँ मगर शायद मातहत रहने वाले बच्चों के कामयाब न होने या फिर बिगड़ते हुवे दिखने का एहसास हुवा है। इंसान बिलकुल मजबूर हो जाता है पूरी दुनिया फतह करके भी वहां झुकना पड़ता है। मगर तब भी शायद कोई खास असर नही होता है। 

Saturday, 31 December 2016

बदलाव

एक कहानी सुनाती थी माँ बचपन में जिसमे एक चिडया का दाना लकड़ी के दो पाटे के बिच फंस जाता है और वो चिडया ये कहते हुवे सबसे गुहार लगती है की "क्या खाऊं क्या पियूँ क्या लेके प्रदेश जाऊं-ऐ साहब थोड़ा मेरी मदद करो "
आज कुछ इस्तिथि ऐसी ही है, ज़िन्दगी ऐसी कश्मकश में फांसी है कुछ समझ नही आता है। हर कोई परेशां है। इस साल के जाते जाते नए साल में कुछ बदल जाने की आशा रखते हुवे अपने भरी मन को हल्का कर रहें  हैं। आधुनिकता और जागरूकता के नाम पे संस्कृति को पीछे छोरना एक चलन सा हो गया है, मगर कोई यकीन करे या न करे इंसानी ज़िन्दगी में कुछ नही बदला है मूलभूत चीज़ें और परेशानी अब भी वहीँ हैं बस उसका रूप बदल गया है।  उदाहरण के लिए , बधुवा मजदूरी अब भी है बस उसका रूप बदल गया है और अब वो आधुनिक ग़ुलामी है। राजतन्त्र प्रजातंत्र में बदल गया है लेकिन गरीब अब भी  वही मार झेल रहा है। बड़े बड़े उद्योग पति अब भी मजा ले रहे हैं और  तब भी मजे में थे। एक जमाना था जब बड़े गिने चुनों लोगों के पास कारें हुवा करती तब गरीब लोग बैलगाड़ी और पैदल चलते थे अब बड़े लोगों के पास निजी विमान है और निचले लोगों में भी थोड़ी तरक़्क़ी आगयी है मगर रूप रेखा अब भी वही है बस उसका पैमाना बदल गया है। क्या सिर्फ पैमाना बदल जाना ही विकास ज़िन्दगी का ?

Friday, 30 December 2016

नया साल

क्या कुछ बदल जाता है एक साल के बदलने से, नए साल के आने से क्या आजाता है। आखिर किसने और कब ये नियम लागु किया के ये साल यहाँ पे ख़त्म माना जायेगा और यहाँ से ये नया साल शुरू हो जायेगा।
कुछ नही बस ऐसा होने में सिर्फ एक खगोलीय  घटना का हाथ होता है। सिर्फ बदलता ये है की पृथ्वी सूर्ये का एक चक्कर पूरा कर लेती है उसके बाद वहां से दूसरा चक्कर शरू होता है। और साइकिल चलता रहता है। दिन को यूनिक कोड देने के लिए हम डेट मंथ और साल में बाँट देते हैं बस।
अतः नए साल में मुझे केवल इतना दीखता है की पृथ्वी ने हम पापियों के बोझ को लेकर सूर्ये के एक और चक्कर पुरे करलिए। 

Saturday, 15 October 2016

​​यूनिफार्म सिविल कोड या बेतुका नाच -1


​यूनिफार्म सिविल कोड, आज कल ये एक बहुत बड़ा बहस का मुद्दा बन गया है। और ज्यादा तर लोग इस बहस में बिन सोचे समझे कूदते दिख रहे है। इसे अब यूनिफार्म सिविल कोड का मुद्दा नही रहने दिया गया है अब ये धुर्वीकरण का मुद्दा बन गया है। सरकार के द्वारा एक स्पेशल मैरिज एक्ट पहले से ही है। मुझे कोई बताएगा की इस मैरिज एक्ट से कितने लोग शादी करते हैं। शायद कोई नही आज भी सब लोग हिन्दू मैरिज एक्ट के तहत शादी करते हैं। लोग बहस करते वक्त तो बहुत उदार और समाज सेवी बन जाते हैं मगर जब बात खुदपे आती है तो पुर्वजो के नाराजगी का ढोंग रच के उसी पायजामे में जा  घुसते हैं जिसका उनको विरोध होता है। जहाँ एक पुरे समुदाय और धर्म के लिए यूनिफार्म कोड नही है वहां बहु धर्म  के लिए यूनिफार्म सिविल कोड लाना एक बेवकूफी ही है।  हिन्दू मैरेज एक्ट के तहत एक लड़का अपने पिता के सात पुस्त दूर रिस्तेदारी और मा के पांच पुस्त दूर रिस्तेदारी में शादी नही कर सकता मगर इसका उपहास धरल्ले से उड़ाय जाता है साउथ इंडिया में मामा अपनी भांजी से शादी करना गर्व की बात समझता है और ये सबसे पूर्ण रिश्ता माना जाता है। तब तो कभी सुनारमन्यम स्वामी पि आई एल फाइल नही करते की ये नियम क़ानून के खिलाफ या ये नियम का पालन नही हो रहा है , मगर यूनिफार्म सिविल कोड वकालत करते हुवे हमेशा दिख जायेंगे। क्या वो बताना पसंद करेंगे की उनकी बेटी सुहाना हैदर किस मैरिज को फॉलो करतीं है।
 जजमेंट और मीडिया का रिएक्शन वक्त के हिसाब से  हमेशा बदल जाता है अगर बात मुस्लिम की हो तो बहस का एंगल बदल जाता है। सायरा बानो का केस तो आपलोग जानते ही होंगे उस केस में सायरा बानो का पति उन्हें  इसलिए तलाक़ देता ही क्योंकि वो अपने पति को अपने माता पिता के साथ रहने को ज़िद कर रहीं थीं। तो उसमे कोर्ट का जजमेंट कुछ अलग आ जाता है और दूसरी और कोर्ट का जजमेंट दूसरे केस में किसी दूसरे समुदाय के लिए ये आता है की नही अगर पत्नी आपको अपने माता पिता से अलग रहने को कहे तो आप उसे तलाक़ दे सकते हो ये एक वैलिड रीज़न माना जायेगा।
 लिंग भेद और जेंडर एकलिटी की बात करने वाले अगर इस्लाम को समझ लें तो शायद उनके लिए बहस करना बहुत आसान हो जायेगा। इस्लाम ने औरतों को आज से १४०० साल पहले वो अधिकार दिए हैं जो अब भी हिंदुओं के यहाँ नही दिए जाते है। इस्लाम ने औरतों को तब ही समानता दे दी थी जब हिन्द में औरत को केवल एक वस्तु माना जाता था। जहाँ आज भी औरतो की दशा कुछ ज्यादा नही बदली है वो यूनिफार्म सिविल कोड की बात करते हैं। पहले जरुरत है सब लोगों को अपने अपने घरों में काम करने की। मगर अफ़सोस ऐसा नही हो सकता क्योंकि उनका मक़सद रिफार्म लाना नही है।
जस्टिस काटजू को तीन तलाक़ और बुर्का से बहुत एलर्जी है क्योंकि वो समानता की बात करते हैं , मगर जस्टिस काटजू ने खुद एक जजमेंट में दूसरी पत्नी को दासी कहा है। जबके इस्लाम में दो पत्नी रखने की इजाजत तब  दी  गयी  है जब आप दोनों के बीच न्याय कर सको। ये उदाहरण कुछ भी नही है ऐसे  हज़ारों उदाहरण है।
सदुपयोग और दुरूपयोग हर ज़माने में हर जगह हर चीज़ का होता आया है और होता रहेगा मगर इसका मतलब ये नही है की वो कानून या वो चीज़ को बदल दिया जाये। किस किस  चीज़ को कब कब और कहाँ कहाँ बदलने की जरुरत है इसको देखने के लिए  एक ऐसी नज़र की जरुरत है जिसमे द्वेष करुणा न हो और न ही कोई दबाव हो। है कोई जो ऐसी भावना प्रकट कर पाए।
असल में  देखा जाये तो आज कल ये बहस शुरू हुई है इसकी जड़ भी द्वेष और निजी तरक्की ही है। ये मामला सुप्रीम कोर्ट में एक हिन्दू महिला के अधिकार पे बहस और फैसले पर था जिसमे हिन्दू औरत को पैतृक प्रॉपर्टी में हिस्सा दिए जाने पर फैसला आना था। १९५५ में बने हिन्दू कोड कोड बिल में हिन्दू औरतों को पैतृक प्रॉपर्टी में अधिकार नही दिया गया था जबकि उनको  पति  के खुद  के खरेदी हुवे प्रॉपर्टी में हिस्सा दिया जाने का प्रावधान था। इस कानून में २००५ में संसोधन किया गया और औरत को पैतृक प्रॉपर्टी में भी हिस्सा देने का प्रावधान जोड़ दिया गया।  और २००५ के संसोधन के बाद एक सुनवाई के दौरान  इस फैसले के सन्दर्भ में आंध्र हाई कोर्ट ने इसको बेक डेट में स्वीकारिये मानने को कहा, क्योंकि ये कानून महिलाओं के अस्मिता से जुड़ा हुवा था।  जिसपे लोग सुप्रीम कोर्ट चले गए की इसको बैक डेट स्वीकारिये न माना जाये।  और सुप्रीम कोर्ट ने औरत के अधिकार को सुरक्षित नही रख्खा मगर अपने जजमेंट में कहीं दो तीन इन जोड़ दिया के कुछ वकील कह रह थे की मुस्लिम लौ भी बहुत अजीब है इसलिए अटॉर्नी जनरल को और सरकर को इसपे अपनी राय रखनी चहिये। और वहां से ये बहस आजकल फिरसे चर्चे में आ गया।
और देखा जाये तो बहुत से मामले में अभी भी यूनिफार्म कोड का पालन हो ही रहा है मगर क्या उससे वो चीज़ें ख़तम हो गयी। दहेज़ कानून का कौन पालन नही करता है मगर क्या ये ख़तम हो गया ? क्रिमिनल कोड तो सबके लिए एक सामान है तो क्या इससे क्राइम ख़तम हो गया, नही न ! क्राइम करके इंसान बच जाता है पकडे जाने पर लंबे जस्टिस ट्रायल का सामना करते करते मर जाता है। जहाँ सेकड़ों गुनाहगार बच जाते है और एक दो को ही उसकी सजा मिलती है, ऐसा इसलिए है क्योंकि अदालतें केसों का निपटारा करने में असमर्थ हैं।  उनके पास संसाधन नही है।
बहरत में कितने प्रतिशत मुलिम हैं जो दो शादियां करते हैं। इसके उलट कुछ लोग जिनके यहाँ क़ानून में दो शादी  का प्रावधान नही है वो मुलिम बनकर  दूसरी शादी कर ले रहे है और ऐसी शादी लिस्ट बहुत लम्बी है , रामविलास पासवान, हेमा मालिनी और न जाने कौन कौन।
सही मायने में अभी यूनिफार्म सिविल कोड की कोई जरुरत नही है अभी हिंदुस्तान को बहुत कुछ करना है। और अगर जरुरत है तो जस्टिस सिस्टम को ठीक करने की, जस्टिस क्रांति की जिसमे ये सोचा जाये की कैसे समय रहते न्याय दिया जाये। आप जितना मर्जी क़ानून बना लो मगर इसके केसेस के निपटारे के लिए कुछ न कर सके तो क़ानून बनाने का क्या फायदा है ? .....क्रमशः

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Saturday, 8 October 2016

मजदुर का हक़

नियम बनाने तथा स्वीकृति देने वाले ओहदेदार लोग चन्द पैसे , उन्नति और शोहरत के लिए गरीबों का हक़ मार लेते हैं। गरीबों का लीडर तथा  मजदुर संघ का प्रभारी भी उन्ही के हाथो बिक जाता है। ऐसी एक नही अनेक घटनाये हैं जिनका सबुत समय समय पे आता रहता है। ये आज की कहानी नही है ये सादिया से होता आ रहा है। चाहे रोज़गार आज की तरह संघठित रहा हो या सत्रहवी सताब्दी से पहले का असंगठित ढांचा, हमेशा से ही गरीबों का खून चूसा गया है। चाहे कोई कुछ भी बात करे मगर बात करने वाले में से भी ५% ही लोग ऐसे होते हैं जो दिलसे बात करते हैं अन्येथा ज्यादातर लोग केवल प्रसिद्धि तथा निजी स्वार्थ के लिए ही बात करते हैं।
 इसपे आपको एक उदहारण देता चलूँ , राजू, जो अपने घरके लिए अकेला कमाने वाला इंसान था। एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में दिल्ली में काम करता था। उसे उसकी मेहनत, लगन तथा कर्येषेली के लिए जाना जाता था। एक रात काम करते हुवे उसके  साथ एक दुर्घटना हो जाती है। और उसको दिल्ली के नामी सरकारी अस्पताल में भर्ती करवा दिया जाता है। उसके घरवाले को सूचित किया जाता है और उसके देख रेख की जिम्मेदारी उसके पत्नी को देदी जाती है और कंपनी वाले ये कह कर निकल लेते हैं की अगर इनकी अपाहिजता या  मौत हो जाती है तो इनको रूल के हिसाब से कंपनसेशन देदिया जायेगा।  वो सख्श ६  महीने तक हॉस्पिटल में रहा उसकी पत्नी ने अपने सरे जेवर बेच डाले तथा घरको गिरवी रखकर इलाज़ करवाया।  करीब कोई छह महीने बाद वो ठीक हो गया मगर जब तक वो सबकुछ खो चूका था यहाँ तक के घरभी। हालत पहले जैसी नही रही की वो काम करसके, क्योंकि वो बहुत कमजोर हो चूका था। उसने कंपनी से संपर्क साधा की कुछ हर्जाना मिल जाये और काम पे रख लिया जाये।  मगर हर्जाना तो दूर उसे काम पे भी नही रख्खा गया। हवाला दिया गया की कंपनी सिर्फ अपाहिज होने या मौत होने पे ही हर्जाना देती है और आप तो ठीक हैं सो कंपनी आपकी कोई मदद नही कर सकती है। काम के बारे में पूछने पे बताय गया की आप बहुत कमजोर हो अभी आप को काम पे नही रख सकते।
  क्या सिर्फ शरीर से अपाहिज होना तथा प्राण का न होना ही अपाहिज और मौत माना जाता है। क्या होगा अगर कोई कंपनी अपने करोडो के कमाई का कुछ हिस्सा अपने लिए खून पसीना बहाने वाले मजदुर के लिए खर्च करदे। धित्कार है हुम्सबपर। 

Friday, 7 October 2016

Shift work/Night shift-Violation of fundamental right

Shift work/Night shift

Night shift is considered if you are working between 11:00pm to 6:00am for more than 3 hours. By up growing demand of industrialization and development compel human to work in shifts to increase the production in lesser calendar days. It’s not on record that when shift work started (night shift) but on various data and record showing sign of its origination by end -18th century when industrialization and labor exploitation was on peak in Europe and America, prior to the Industrial Revolution, which began in Britain in the late 1700s, manufacturing was often done in people’s homes, using hand tools or basic machines.Industrialization spread from Britain to other European countries, including Belgium, France, and Germany, and to the United States. By the mid-19th century, industrialization was well-established throughout the western part of Europe and America’s northeastern region. By the early 20th century, the U.S. had become the world’s leading industrial nation.

The scenario of the 18th century was not simple as like now, they were working more than 15 to 16 hours a day and so we can’t define it as shift but still for the sake of discussion we are moving ahead on the same.After many revolution and sacrifice sector were ready to give full day payment after working 8 hours a day in normal condition. But still sector lagging behind the many constraints which need to be focused in coming year to ease the workers’ life in general and in shifts. It is normal practice in the industry to divide the 24 hours by 8 to get the number of the shift in complete day-night cycle, which assumed day and night as same working condition, but it’s not fair. Working in the day is not equal to work at night, a person can’t take his part sleep in the day instead of night, due to many constraints like light, sound, temperature etc.. and the isolated daily life routine from another part of the world is another strong thing which causes a problem. Working in the night is not cause only less sleep, fatigue but also have many consequences in long terms too, like heart disease, sugar and even breast cancer in women.

Night shift causes the change of ‘circadian rhythm’

The human body follows a daily rhythm, which involves the fluctuation of over 100 body functions, with regular peaks and troughs, in a 24-hour cycle. These daily cycles are called circadian rhythms. The word ‘circadian’ comes from the Latin ‘circa dies’, meaning ‘about a day’.

Circadian rhythms regulate body functions such as temperature, metabolism, digestion, blood pressure, secretion of adrenalin, sleeping and waking. These rhythmical processes form the body’s internal clock and are coordinated so as to allow for high activity (peaks) during the day and low activity (troughs) at night. Hence, this is one reason why people often feel most active and alert around 4-6pm, and sleepiest around 4-6am.

Night/Shift work may cause or contribute to the following effects:

 Biological Effects:

cardiovascular disorders
gastrointestinal disorders
circadian dysrhythmia
Psychosocial Effects:

sleep loss/fatigue
lowered performance
increased accidents
stress
Individual Effects

disrupted family and social life, e.g. isolation from friends, family, social events and celebrations, sports match, etc.
Performance

Yes, of course, our performance is not going to be as normal as working in day shift. Night shift workmen can never have the sufficient amount of sleep which body required normally and this can accumulate into a large “sleep debt” over time. Again about the rhythmic cycle, you are going against your biological things. Have you ever observed some special effect in your body during night only, like increase in pain or increase of illness etc. there are many things which happen in night only. By working regularly in the night you are obstructing the natural cycle and that cause uncomfortable, these things lower down the efficiency of the human.

it’s not possible to shut off the night shift work but it should be put on discussion with these concern which not limited to these only.
Lower down the night working hours, cycle shall not be as equal to day shift working hours.
There is some example of balancing the night working time

Ø Night shift shall not be more than 6 hours including 2:30hours of define day shift and maximum 3:30 hours of night shift between 11:00 pm to 6: am. And so cycle shall be in the line of 8:30 pm to 2:30 am and 2:30 am to 8:30 am. These debt hours(due to 6 hours’ shift) can be adjusted from normal working hours like instead of 8 hours a persona can work for 10 hours when he is in day shift and continue this cycle to ease everyone when they are in night shift.
Or,
Ø We may arrange three shifts like two shifts of 9 hours including 1 hours break and the third one, night shift, 6 hours only. No need to overlap the shifts.

·        Give special allowances to night shift workmen.

·        Regular health assessment

·        No new works and new workmen

Ø Any new job shall not be started from night shift which needs special attention and skill.

Ø No new workmen shall be introduced into the night shift and barred them from shift rotation up to the complete familiarity of job and workplace.

·        Adequate number of supervisor

Ø Not in the factory but in the construction industry, it's normal to plan heavy concreting and other heavy work in the night that risk the safety of workmen and quality of work as well, as in night there is few staff with less experience. That cause poor judgment and many irregularities, accident and quality lapse had observed due to that.

·        Workmen should put on the radar with more than two supervisors.

Ø In cold night of December 2010, I was employed with DMRC project in a famous contracting company. Work men found drowsy and went to sleep in invisible side of stockpile, later an excavator operator started the loading of stockpile into the truck and excavator operator cut the rear side sleeping workmen into two pieces.

Ø 2nd incident happens due to low and lazy reaction; a dumper operator raises up their dump bucket on hydraulics cylinder to dump the material on the ground but unfortunately the top of bucket gets in touch with the overhead electric line.

·        Operator Job and idle time shall be supervised carefully.

Ø In construction industry operator of different heavy equipment may not have the job at all of his shift and in idle time he tends to sleep quickly inside the operator cabin, (it happens due to idle and rest theory of human body and mind). After getting job assignment they start working immediately but it’s wrong that immediately jump into the work cause them less reactive and less attentive too.







1 May - Labor Day (International Workers' Day)

Labor Day, observed on May 1st, holds significant importance worldwide as a tribute to the contributions of workers towards society and the ...