एक कहानी सुनाती थी माँ बचपन में जिसमे एक चिडया का दाना लकड़ी के दो पाटे के बिच फंस जाता है और वो चिडया ये कहते हुवे सबसे गुहार लगती है की "क्या खाऊं क्या पियूँ क्या लेके प्रदेश जाऊं-ऐ साहब थोड़ा मेरी मदद करो "
आज कुछ इस्तिथि ऐसी ही है, ज़िन्दगी ऐसी कश्मकश में फांसी है कुछ समझ नही आता है। हर कोई परेशां है। इस साल के जाते जाते नए साल में कुछ बदल जाने की आशा रखते हुवे अपने भरी मन को हल्का कर रहें हैं। आधुनिकता और जागरूकता के नाम पे संस्कृति को पीछे छोरना एक चलन सा हो गया है, मगर कोई यकीन करे या न करे इंसानी ज़िन्दगी में कुछ नही बदला है मूलभूत चीज़ें और परेशानी अब भी वहीँ हैं बस उसका रूप बदल गया है। उदाहरण के लिए , बधुवा मजदूरी अब भी है बस उसका रूप बदल गया है और अब वो आधुनिक ग़ुलामी है। राजतन्त्र प्रजातंत्र में बदल गया है लेकिन गरीब अब भी वही मार झेल रहा है। बड़े बड़े उद्योग पति अब भी मजा ले रहे हैं और तब भी मजे में थे। एक जमाना था जब बड़े गिने चुनों लोगों के पास कारें हुवा करती तब गरीब लोग बैलगाड़ी और पैदल चलते थे अब बड़े लोगों के पास निजी विमान है और निचले लोगों में भी थोड़ी तरक़्क़ी आगयी है मगर रूप रेखा अब भी वही है बस उसका पैमाना बदल गया है। क्या सिर्फ पैमाना बदल जाना ही विकास ज़िन्दगी का ?
आज कुछ इस्तिथि ऐसी ही है, ज़िन्दगी ऐसी कश्मकश में फांसी है कुछ समझ नही आता है। हर कोई परेशां है। इस साल के जाते जाते नए साल में कुछ बदल जाने की आशा रखते हुवे अपने भरी मन को हल्का कर रहें हैं। आधुनिकता और जागरूकता के नाम पे संस्कृति को पीछे छोरना एक चलन सा हो गया है, मगर कोई यकीन करे या न करे इंसानी ज़िन्दगी में कुछ नही बदला है मूलभूत चीज़ें और परेशानी अब भी वहीँ हैं बस उसका रूप बदल गया है। उदाहरण के लिए , बधुवा मजदूरी अब भी है बस उसका रूप बदल गया है और अब वो आधुनिक ग़ुलामी है। राजतन्त्र प्रजातंत्र में बदल गया है लेकिन गरीब अब भी वही मार झेल रहा है। बड़े बड़े उद्योग पति अब भी मजा ले रहे हैं और तब भी मजे में थे। एक जमाना था जब बड़े गिने चुनों लोगों के पास कारें हुवा करती तब गरीब लोग बैलगाड़ी और पैदल चलते थे अब बड़े लोगों के पास निजी विमान है और निचले लोगों में भी थोड़ी तरक़्क़ी आगयी है मगर रूप रेखा अब भी वही है बस उसका पैमाना बदल गया है। क्या सिर्फ पैमाना बदल जाना ही विकास ज़िन्दगी का ?
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