आज सुबह जब दफ्तर पहुंचा तो असलम चाचा को देख कर थोड़ा ठिठक सा गया, मुस्कुराते हुवे मजाहिये अंदाज में मैंने उनसे पूछा, क्या हुवा उदास बैठे हैं, सब ख़ैरियत तो है या फिर आज कोई नया मज़मून मिलेगा मुझे अपने ब्लॉग के लिए।
अगर मेरे अहवाल से आपको ब्लॉग लिखने में मदद मिलती है या इसको आप एक सामग्री की तरह लेते हो तो ये ही सही। मगर मेरे एक कश मकश का उत्तर दीजिये और अपने ब्लॉग के पाठकों से भी उनकी राय पूछिए। इंसानी ज़िन्दगी में अख़लाक़ का क्या क्या तकाज़ा होना चाहिए ये मैं अभी तक नहीं समझ पाया जबके मेरी आधी से जयादा उम्र गुज़र चुकी है। बार बार वसीम बरेलवी को याद करके दिल को बहलाते हुवे शांत बैठ जाता हूँ की शायर भी इसी असमंजस में हैं। वो कहते हैं की
नए उम्र की ख़ुदमुख़्तारियों को कैसे समझूँ।
कहाँ बचके निकलना है कहाँ जाना जरुरी है।।
फिर ऐसा कोनसा तराज़ू मेरे पास हो जिससे मैं किसी की अच्छाई और बुराई की तुलना करके उससे अपने आपको दूर या नज़दीक करलूं या महज़ कुछ चीज़ें देखकर उससे नफरत करने करने लगूँ। लेकिन मैं किसी से नफरत क्यों करूँ । मैं किसी को पसंद नहीं करता ये एक अलग बात हो सकती है मगर किसी से नफरत करूँ ??
इंसानी ज़िन्दगी में अख़लाक़ का तकाज़ा मेरे लिए बचपन से ही एक अलग विषेय रहा है और ये हमेशा से अनसुलझा रहा है। मैं बचपन में अपने एक दोस्त के साथ रात में तहज्जुद की नमाज पढ़ने के लिए उठता था। ये सिलसिला ज्यादा दिन तक न चला मगर तब बहुत जोश आया था। जब हमारे उस्ताद ने "सवाउत्तरीक़- मजमुआ ऐ हदीस, उर्दू तर्ज़ुमा " पढ़ाते हुवे बताया की अगर अल्लाह को खुश करना चाहते हो तो रात के अँधेरे में अपने पीठ को बिस्तर से अलग करलिया करो और ठीक उसी तरह उसकी दर पे पहुँचो जैसे उस्ताद को अकेला देख चुपके से उनके पास पहुंच कर अपनी जान पहचान बढ़ाने की कोशिश करने लगते हो या अपने मतलब की कुछ खास बात करते हो। और कहा
"ये जहाँ क्या चीज़ है लुह औ क़लम तेरे हैं "
उस वक्त में आवासीय विद्यालय में रहता था इसलिए हमारे ऊपर कोई खास रोक टोक नहीं था प्रभारी साहब भी उस वक्त गहरी नींद में ही होते थे। हम दोनों बहुत ही गहरे दोस्त थे हर चीज़ एक दसूरे को बताते थे। जबकि उस बचपने में हमें ये मालूम नहीं था की दोस्ती क्या चीज़ है मगर दोस्ती की घनिष्टता शायद पूरी तरह से प्राकृतिक इसलिए थी क्यूंकि जब तक मिलावट समझने की समझ नहीं थी। एक रात हम दोनों नमाज के बाद एक दूसरे की तरफ देख कर मुस्कुरा दिए फिर हम दोनो ने एक दूसरे से पूछा की तुमने दुआ में क्या माँगा। मैंने कहा पहले तू बता, उसने कहा यार सच बताऊं तो मुझे यहाँ मन नहीं लगता, मैं दुआ करता हूँ की कुछ ऐसा हो जाये की मैं अपने अम्मी के साथ रह सकूँ। फिर उसने पूछा तूने क्या माँगा। ......मैं थोड़ी देर चुप रहा, फिर ठंडी सी साँस लेते हुवे कहा की मैं यहाँ बहुत खुश हूँ मुझे बहुत मजा आता है। क्यूंकि यहाँ कोई किसी को नहीं जानता सब सिर्फ और सिर्फ अपनी प्रतिभा से जाने जाते हैं। हाँ, मगर दुआ में क्या मांगता है ये तो बता। ... मैं दुआ में सिर्फ, लोगों के दिलमे अपने लिए और अपने दिलमे लोगों के मुहब्बत मांगता हूँ। क्यूंकि तू देखता है न मेरी किसी लड़ाई होती है तो मुझे कितना टेंशन हो जाता है , इसलिए अल्लाह से कहता हूँ की न मैं किसी से नफरत करूँ और न कोई मुझसे। लड़ाई झगड़ा मुझे पसंद नहीं , क्यूंकि मैं गुस्से में कुछ ज्यादा ही तल्ख़ बोलदेता हूँ और उससे सिर्फ टेंशन बढ़ता है और बढ़ता ही जाता है। उसने जोरसे क़हक़हा लगाया और कहा, ये तो तेरे डरपोक होने की अलामत दिखती है मुझे।
तबसे लेकर आजतक मैं सिर्फ यही सोचता हूँ के क्या मैं वाक़ई डरपोक हूँ?
लोगों से नफरत व गुस्से का इज़हार कर इंसान को सकूँ का एहसास होता है मगर ये नफ़्स की कोनसी खूबियों में से है जो किसी का दिल तोड़कर किसी को जलील कर हमें सकूँ मिलता हैं।