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Monday, 17 November 2014

जब मैं छोटा था। 

जब मैं छोटा था।
दिन भर खेलता रहता था
फिर स्कूल जाने लगा
ज़िन्दगी की कुछ बातो को समझने लगा
...
इसी बीच कुछ बातें आयीं जो मैं समझ न सका
और बिन समझे सबको बेवक़ूफ़ कहने लगा
मगर आब बड़ा हो गया हूँ और वो बातें समझ गया हूँ
अपनी लरकपन की बेवकूफी पर हंस भी नही पा रहा हू
क्या ज़िन्दगी इसी का नाम है की बेवक़ूफ़ बन कर बेवक़ूफ़ बनाया जाये??
या फिर समाज सुधारक बना जाया जाये
मैं समझता था ये ज़िन्दगी कई उतार चढ़ाओ बनावटी है
मगर नही दोस्त यहाँ तो लोगों की सोच भी बनावटी हैं
बवकूफों को कहता था मैं गुश्ताख
मगर उन जैसा मैं भी हो गया हू एक गुश्ताख
या फिर कहीं और चले जाया जाये
मगर सोचता हूँ किया जाये तो किया - क्या जाये
मगर कुछ तो नया भी करने की सोचा जाये
क्यों इन पुरानी कहानियों पर विश्वाश किया जाये
चलो सर उठाया जाये तकिया हटा कर कुछ नया किया जाये
लोग सोते रहेंगे पर चलो हम सब कहीं और चला जाये

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