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Saturday, 23 April 2016

आँख बंद हो जाती है।

आज फिर उदास हूँ। नकारात्मकता से भरा हुवा। दर बदर में घुटता दम मानो ऐसे सांसे ले रहा हूँ जैसे दुनिया में ऑक्सीज़न खत्म हो गया हो। आँखों के सामने सिर्फ सन्नाटा ही हो। जैसे आप किसी सुनसान रैंगिस्तान में आगये हो। पैरो के निचे दहकते रेत जैसे आग की भट्ठी में पर गया हो। और चलते जाओ, चलते जाओ फिर भी कुछ न दिखा हो जैसे ये पृथ्वी नहीं कोई और गृह पर आगया हूँ।
फिर शाम होने लगती है और सूरज का उरूज खत्म होने लगता है देखते ही देखते अँधेरा उजाले को खा जाता है। आसमान में टिमटिमाते तारे जैसे सन्देश देने की कोशिश कर रहें हो की अब तुम सुरक्षित हो। तभी आँख खुल जाती है और सही में उदास हो जाता हूँ की ये क्या जब सब कुछ सही होने लगा था तो आँख क्यों खुल गयी।
ज़िन्दगी भी कुछ ऐसी ही है इंसानो की जब थोड़ा सकूँ लगने लगे तो आँख बंद हो जाती है।

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